________________ दिशा का दृश्य भी मन को लुभाने वाला होता है। सन्ध्या की सुहावनी लालिमा भी दर्शक के हृदय को आनन्दविभोर कर देती है। वही स्थिति साधक की है। . उसके जीवन में भी संयम को ग्रहण करते समय मन में जो उल्लास और उत्साह होता है वही उत्साह मृत्यु के समय भी होता है। समाधिमरण के समय दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप - इन चार आराधनाओं को सुनाने का विधान है। दर्शन आराधना में उसे बताया जाता है कि सारे कर्मबन्ध असम्यग्दर्शन से उत्पन्न होते हैं। देह को आत्मा मानना भी असम्यग्दर्शन है। वास्तव में तो चना और चने का छिलका पृथक्-पृथक् हैं। परपदार्थ में रति असम्यग्दर्शन से होती है। ज्ञानाराधना से मोहनीय कर्मों का क्षय किया जाता है। ज्ञान आत्मा का महत्त्वपूर्ण गुण है। उसी से समस्त लोक अलोक उद्भासित होते हैं। केवलज्ञान आत्मा के परम विशुद्ध स्वरूप में सुरक्षित होता है। आत्मज्ञान के बिना मोक्ष अप्राप्य है। आत्मा के इस ज्ञानगुण का चिन्तन करने से पुनर्जन्म पर विजय प्राप्त होती है। इसी प्रकार चारित्राराधना से समाधिमरण प्राप्त करने वाले को बार-बार समझाया जाता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का प्रयोगक्षेत्र सम्यकचारित्र है। आत्मा की विशुद्धि चारित्र से होती है। चारित्र-पालन किये बिना दर्शन तथा ज्ञान की बातें करते रहने से कृतार्थता नहीं मिलती। संयम का शास्त्रीय ज्ञान ही अपेक्षित नहीं, उसका व्यावहारिक आचरण प्रयोजनीय है। पंच महाव्रत, पंच समिति और त्रिगुप्ति चारित्र के ही भेद हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से जीवन में तप का आविर्भाव होता है। त्रिरत्न द्वारा तपोमय जीवन को उज्ज्वल किया जाता है। जिसप्रकार वर्ष भर पूर्ण परिश्रम करने वाला छात्र वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण होता है, वैसे ही जीवन में मुनिव्रतों का अप्रमत्त पालन करने वाले को समाधि-परीक्षा में विचलित होने की आवश्यकता नहीं होती। वह सहज भाव से उसको उत्तीर्ण कर जाता है। समाधिमरण व्रतों की रक्षा के प्रति सावधान रहने की प्रतिज्ञा का निर्वाह है। जो व्रत भंग करके जीवित रहता है, उसका जीवन क्या अनन्तकाल तक के लिए सुरक्षित होता है ? मृत्यु उसे भी आकर पूछ लेती है। तब, व्रतों की पालना करते हुए ऊर्ध्वगति को प्राप्त करना सर्वोत्तम पक्ष है। शाश्वत धर्मपालन को नश्वर देह के लिए नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि देह तो फिर मिल सकती है, धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है। समाधिमरण देह के प्रति निर्ममत्व की साधना का ही प्रयास है। यह न तो आत्महत्या है और न ही जीवन से भागने का प्रयत्न / अपित जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही अपरिहार्य बनी मृत्यु का स्वागत है। वह देह के पोषण के प्रयत्नों 9200 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004