________________ समाधिस्थ मुनि को आराधक संज्ञा दी है, क्योंकि वह उस समय शुद्धात्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा की आराधना करता है तथा स्वयं शुद्धात्मा-प्राप्ति की आराधना करता है। समाधि-मरण करने वाला व्यक्ति संसार और शरीर के स्वरूप का चिन्तन करता है। उनकी यथार्थ स्थिति का, उनकी नश्वरता का बोध उस समय अवश्य जागता है। वह विचारता है कि संयुक्त पदार्थ का वियोग होता है, यह सुनते, पढ़ते व श्रद्धान करते आये हैं, पर अब यह समय तो प्रत्यक्ष ही दर्शन करा रहा है कि इनका वियोग मुझसे (आत्मा से) या मेरा (आत्मा का) वियोग इनसे होगा। ऐसी स्थिति में इन पदार्थों पर ममत्व रखना, विषयों की वांछा रखना सर्वथा अहितकर है, यह जानकर वह इनका स्वयं त्याग कर आत्मधर्म की साधना में तल्लीन होता है। ऐसे साधुजन शरीर के द्वारा अपने आत्महितकारी कार्य लेते हैं। शरीर को भोजन देना, औषधि देना, शीत-आतप आदि के घातक आघातों से बचना आदि कार्य भी तब तक करते हैं, जब तक वे देह से आत्म-साधना का कार्य ले सकते हैं किन्तु जब देह उनके उद्देश्यानुसार उनके कार्य में सहायक नहीं रहती, तब उसकी चिन्ता छोड़ देते हैं। अपनी साधना को साधते हुए यदि मृत्यु भी आ जाय तो उसे अंगीकार कर लेते हैं। साधक अर्थात् सल्लेखना या समाधि का आराधक साधु देह के पोषण का तभी त्याग करता है जब वह देखता है कि देह नष्ट होने के साधन समुपस्थित हैं। शरीर की रक्षा में अब आत्मसाधना के मार्ग से हम दूर गिरे जा रहे हैं। इतने पर भी यह आशा नहीं कि शरीर बच जाए। जब तक वह बच सकता था, तब तक बचाने का प्रयत्न किया किन्तु जब अपनी साधना के लिए वह घातक सिद्ध होता है तब भी साधक उस शरीर का घात नहीं करता। उसे शरीर से द्वेष नहीं, किन्तु अपने व्रताचार को नष्ट कर शरीर की सेवा नहीं करना चाहता। व्रताचार को यथायोग्य निर्दोष पालना वह अपना कर्त्तव्य मानता है अतः उसे पाले जाता है। उसे पालते हुए यदि शरीर की भी रक्षा हो सकती है तो अवश्य कर सकता है, पर जब व्रताचार की रक्षा करते हुए शरीर की रक्षा सम्भव नहीं रह जाती, किन्तु शरीर-रक्षा के लिए व्रताचार को नष्ट करना अनिवार्य हो, और उसके बाद भी यह भरोसा न हो कि शरीर फिर भी बच जाएगा और उसके बाद हम प्रायश्चित्तादि कर पुनः अपने व्रताचार पर निष्ठ हो सकेंगे, तब वह शरीर की चिन्ता न कर अपने व्रताचार को निर्दोष पालता है। शरीर उस समय उपेक्षित हो जाता है। इसप्रकार अन्तिम जीवन-क्षणों की आत्मसाधना में पूर्ण योग लगाना और उसका प्रयत्न करना ही साधक की सल्लेखना है। ... यद्यपि मरण-काल में कष्ट बहुत होता है तथापि कष्ट का अनुभव भी हमेशा प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 0061