________________ तिर्यंच भी हैं। कर्मभूमिज मानव की गर्भज पर्याय तो यथार्थ में संसार-बन्धन से उच्छेद में ही अत्यन्त साधक या एकमात्र साधक है। अतः इसका उपयोग भोग में न कर देहात्म भेद दशा को प्राप्त करने के प्रयत्न में ही करना चाहिए। जीवन के जितने क्षण बीत जाते हैं, वापिस नहीं आते। उनका सदुपयोग कर सकने की बात सर्वथा असम्भव हो जाती है। जो क्षण शेष हैं, वे भी यदि इसी भाँति व्यर्थ चले गए तो पूरी मानव पर्याय पशु जीवन तुल्य बीत गई। प्राप्त सामग्री का यथासमय सदुपयोग न कर उसके नष्ट होने पर पश्चात्ताप करनेवाले मूर्ख मनुष्य की तरह ही मानव पर्याय खो देनेवाले मनुष्य की स्थिति होती है। अतः प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि अपने जीवन के क्षण-क्षण की कीमत करे। जितने क्षणों का आत्महित में उपयोग हो, उतने क्षण अपने हैं, शेष वृथा जा रहे हैं- ऐसा हर समय मानकर चलना चाहिए। जिन्हें यह विवेक है वे अपना समय वृथा नहीं खोते और समस्त क्षणों का उपयोग अच्छे से अच्छे रूप में कर लेना चाहते हैं। वे ही महापुरुष साधु-सन्त-सज्जन-यति-मुनि-ऋषि आदि शब्दों द्वारा बोधित होते हैं। मानव पर्याय की समाप्ति के समय जो समाधि ग्रहण की जाती है उसमें साधु और श्रावक का कोई भेद नहीं रहता है। वह धर्म दोनों के लिए एक-सा है। क्रमक्रम से अन्न-जलादि का त्याग तथा कषाय की कृशता, सर्व परिग्रह त्याग, सबसे मोह-ममता का त्याग, प्रकारान्तर से अन्त समय की समाधि में सर्व परित्याग कर केवल स्वावलम्बन, का उपदेश दोनों को है। अपने जीवन-काल में परिजनों से सम्पर्क हुआ है, राग-द्वेष भी उत्पन्न हुए होंगे, अतः उन सबसे अपने अपराधों की क्षमा-याचना करना तथा स्वयं भी किसी के प्रति कषाय न रखकर हृदय से क्षमाभाव स्वीकार करना समाधि का यथार्थ रूप है। __मरण तो अनिवार्य है। जन्म कुण्डली बनाने वाला उस बालक के जीवन की घटनाओं का उल्लेख कर यह भी लिखता है कि आयु इतनी पायेगा। प्रकारान्तर से जन्म की तरह मृत्यु भी सुनिश्चित कर देता है। सामान्य जन उसे अपनी जन्म कुण्डली कहते हैं, पर है वह मरण कुण्डली। जन्म तो हो चुका, उसकी क्या कुण्डली? वह तो किसी ज्योतिषी द्वारा निश्चित तिथि पर हुआ नहीं। जब हुआ तब उस पर से ही यथार्थ में वह उस व्यक्ति की मरण कुण्डली ही बनाता है। मरण अनिष्ट होने से उसे इष्ट शब्द के साथ जोड़ लेना, उसे जन्म कुण्डली कहते हैं। ___ दार्शनिकों का कथन है कि मरण सत्य है। वह अपनी अवस्थिति सदा रखता है। कभी उस मरण का अभाव न होगा। जन्म ही असत्य है, या अल्प सत्य है जो मिटने के बाद पुनः वह जन्म नहीं आता। जन्मान्तर ही होता है। यथार्थ में तो मरण का उत्तर फल जन्मान्तर है और जन्म का उत्तरफल मरण है। प्रकारान्तर से, अनादि प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 0059