________________ तात्त्विकी श्रद्धा और तात्त्विक ज्ञान के बाद ही तात्त्विक प्रयत्न (आचार) का होना सम्भव है। यही कारण है कि अपनी अतात्त्विकी (मिथ्या) श्रद्धा, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचार (विपरीत प्रयत्न) के कारण हमारी सुलझनों की समस्या खाई में पड़ी है और तब तक पड़ी रहेगी, जब तक हमें सम्यक् श्रद्धा न हो। आचार्य उमास्वामी ने अपने तात्त्विक ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है- . _ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' सम्यश्रद्धा, ज्ञान व आचार ही मोक्षमार्ग अर्थात् छूटने का उपाय है। भले ही लौकिक बन्धन के छुड़ाने का उद्देश्य हो, या पारमार्थिक बन्धन से छूटने का, पर छूटेगा व्यक्ति तद्विषयक तात्त्विक श्रद्धा, ज्ञान और आचार के ही द्वारा। जिनको ये प्राप्त हों वे अपनी आत्मा को शरीर के बन्धन से छुड़ाने का प्रयत्न भी करते हों। उनका दृढ़तम विश्वास हो कि हमें बिना देह-मोह त्यागे कल्याण का पथ न मिलेगा। पाप प्रवृत्ति छोड़कर न्याय-प्रवृत्ति करना, न्याय प्रवृत्ति में दुःख हो तो भी उसे समता परिणामों से सहन करना, व्रत पालना, उपवास कर कुछ समय आहारादि से मुक्त रहना, नीरस भोजन, केशलोंच, इन्द्रिय-निग्रह आदि सम्पूर्ण कार्य एक उद्देश्य के सहायक हैं। जैन-परम्परा में श्रावक हो या साधु, उसके समस्त कर्त्तव्य इसी आधार पर चलते हैं। जीवन का अन्त जब होने लगता है तब आत्मप्रदेश स्वयं इस अजीवात्मक जड़ देह को छोड़ने लगता है। देह जो जीवन में भोग का साधनभूत था उसे त्याग के पथ में लाकर उसका साधन बनाया था, वह देह अब अन्तिम अवस्था में न भोग का साधन रह जाती है और न व्रतादि रूप त्याग का / वह अपनी जड़ात्मक प्रवृत्ति के अनुसार गलने लगती है। जैसे-जैसे आत्मप्रदेश शरीर-सम्बन्ध के बन्धनों को ढीला करते हैं वैसे-वैसे शरीर की गलने की क्रिया बढ़ने लगती है। यदि किसी ने अपने जीवनकाल में जबकि देह को योग हेतु साधनभूत बनाया जा सकता था तब उसे भोग का ही साधन बनाया और उससे आत्महित के कार्य नहीं लिये, उसे भी अन्तिम समय यह आवश्यक हो जाता है कि वह योग और भोग के लिए असाधनभूत शरीर को, जो उसे स्वयं त्याग रहा है, त्याग देने का स्वयं संकल्प करे। इसी संकल्प और तदनुसार होने वाली क्रिया को सल्लेखना या समाधि कहते हैं। कर्मभूमि के मानव-जीवन का उद्देश्य न भोग है, और न होना ही चाहिए। कर्मदण्ड अगर पुण्यरूप हो तो उसके भोग के साधन देवपर्याय, भोगभूमिगत मानव व तिर्यंच पर्याय हैं। यदि यह दण्ड पाप रूप है, तो उसके भोग के साधन नरक पर्याय और एकेन्द्रियादि असैनी पर्यन्त तिर्यंच अथवा सैनी पञ्चेन्द्रिय कर्मभूमिज 5800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004