________________ जीवन-साधना का फल-आत्मधर्म की प्राप्ति पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री वत्थुसहावो धम्मो -इस व्याख्या के अनुसार धर्म तो वस्तु मात्र में पाया जाता है, तथापि अचेतन पदार्थ स्वभाव में हो या विभाव में, उसे कोई इसका ज्ञान नहीं है। आत्मा ही एक सचेतनद्रव्य है जो स्वभाव (धर्म) के विरुद्ध अवस्था में दुःख पाता है। अतः आत्मा के लिए उसके धर्म की चर्चा, उपदेश आदि दिया जाता है। __ आत्मस्वभाव तो शक्ति रूप से सदा जीव में है, पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं है। स्वभाव पर-निमित्त में विभाव रूप परिणत हो रहा है। उत्तम क्षमादि दश धर्म, रत्नत्रय स्वरूप धर्म, व्रतादिरूप धर्म, षडावश्यकरूप धर्म- ये सब उस आत्मस्वभाव की प्रकटता में साधन हैं। ये भेदरूप हैं, वह शुद्ध स्वभाव अभेदरूप है। जो मुमुक्षु साधुजन हैं उनका तो सतत प्रयत्न यही रहता है, तथापि श्रावक धर्म भी उसी धर्म की सीढ़ी है। .. इस अनादि परम्परागत संसार में जीवन लेना और मरण करना, पुनः पुनः इसे ही दुहराना यही एक मात्र कार्य है। जीवन के साथ मरण का जोड़ा है, यदि जन्म आवश्यक है तो मरण भी अनिवार्य है। चतुर्गति रूप चौरासी लाख योनियों में मनुष्य गति ही ऐसी है, जिसमें इस कठिन चक्र से निकलने की योग्यता प्राप्त होती है। शरीर आत्मा नहीं है किन्तु आत्मा को अपने कर्मदण्ड के भोगने का साधनभूत कारागृह है। इस कारागृह को ही मोहवश यह जीवात्मा अपना रूप मान रहा है। उसे यह भी पता नहीं कि शरीर के अतिरिक्त भी कई वस्तु हैं जो मैं (आत्मा) हूँ| देह नहीं हूँ, देह मैं नहीं हूँ। मैं और देह पृथक-पृथक् गुण धर्मवाली भिन्न-भिन्न वस्तु हैं। मैं चेतन हूँ, ज्ञायक हूँ, जबकि देह अचेतन है, और मात्र ज्ञेय है। परस्पर विभिन्न ही नहीं, विरुद्ध धर्म रखनेवाली इन दो वस्तुओं का मेल ही मेरा सांसारिक जीवन है। यह विरोधी सम्बन्ध अनादि से चला आ रहा है। इस गुत्थी का सुलझना अभी तक सम्भव नहीं हुआ। इसके न सुलझ सकने का कारण हमारी अनेकता में एकता ही श्रद्धारूप मिथ्याभाव है। जब तक हमें अपने उल्लिखित स्वरूप का ही बोध और उस पर श्रद्धा न हो तब तक उस उलझन को सुलझाने का प्रयत्न कैसे हो? प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 57