________________ मरण ही आत्मघात है और सल्लेखना इस प्रकार के मरण से साधु या श्रावक की रक्षा करती है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार जीवन के अन्त में धारण की गई सल्लेखना से पुरुष दुःखों से रहित हो निःश्रेयस् रूप सुख-सागर का अनुभव करता है, अहमिन्द्र आदि के पद को पाता है तथा अन्त में मोक्ष सुख को भोगता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सल्लेखना को धर्मरूपी धन को साथ ले जानेवाला कहा है। सोमदेवसूरि सल्लेखना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सल्लेखना के बिना जीवन भर का यम, नियम, स्वाध्याय, तप, पूजा एवं दान निष्फल है। जैसे.. एक राजा ने बारह वर्ष तक शस्त्र चलाना सीखा, किन्तु युद्ध के अवसर पर शस्त्र नहीं चला सका तो उसकी शिक्षा व्यर्थ रही, वैसे ही जो जीवन भर व्रतों का आचरण करता रहा, किन्तु अन्त में मोह में पड़ा रहा तो उसका व्रताचरण निष्फल है। लाटीसंहिता में कहा गया है कि वे ही श्रावक धन्य हैं, जिनका समाधिमरण निर्विघ्न हो जाता है।” उमास्वामीकृत श्रावकाचार, श्रावकाचारसारोद्धार, पुरुषार्थानुशासन, कुन्दकुन्द श्रावकाचार, पद्मकृत श्रावकाचार तथा दौलतराम कृत क्रियाकोष में सल्लेखना को जीवन भर के तप, श्रुत एवं व्रत का फल तथा महर्द्धिक देव एवं इन्द्रादिक पदों को प्राप्त करने वाला कहा गया है। ___ तत्त्वार्थसूत्र (7/37) में जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान- इन पाँच को मारणान्तिक सल्लेखना का अतिचार कहा है।” पूजादि देखकर जीने की इच्छा करना और न देखकर शीघ्र मरने की इच्छा करना क्रमशः जीविताशंसा और मरणाशंसा है। मित्रों के प्रति अनुराग रखना मित्रानुराग और सुखों का पौनः पुन्येन स्मरण सुखानुबन्ध है। तप का फल भोग के रूप में चाहना निदान है। यदि ये अज्ञान असावधानीवश होते हैं तो अनाचार हैं। अतिचार से सल्लेखना में दोष उत्पन्न होता है, किन्तु अनाचार से तो सल्लेखना नष्ट ही हो जाती है। अतः अतिचार को अतिचार मानकर शिथिलता नहीं करनी चाहिए। यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन, लाटीसंहिता, हरिवंशपुराण श्रावकाचार, पुरुषार्थानुशासन, धर्मरत्नाकर, क्रियाकोष आदि श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में भी इन्हीं, पाँचों अतिचारों का वर्णन है। जैनधर्म में सल्लेखना साधक की साधना का निकष है। यह तप, श्रुत, व्रत आदि का फल है तथा इसका फल सुगति की प्राप्ति है। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के शब्दों में ‘सल्लेखना वस्तुतः शान्ति के उपासक की आदर्श मृत्यु है। एक सच्चे वीर का महान् पराक्रम है। इससे पहले कि शरीर जवाब दे, वह स्वयं समतापूर्वक उसे जवाब दे देता है और अपनी शान्ति की रक्षा में सावधान रहता हुआ उसी में विलीन हो जाता है। सल्लेखना जीवन के परम सत्य मरण का हँसते-हँसते वरण है। प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 . 0053