________________ काल कहा गया है। पुरुषार्थानुशासन के अनुसार प्रतीकार रहित रोग के उपस्थित हो जाने पर, दारुण उपसर्ग के आने पर अथवा दुष्ट चेष्टा वाले मनुष्यों के द्वारा संयम के विनाशक कार्य प्रारम्भ करने पर, जल-अग्नि आदि का योग मिलने पर अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई मृत्यु का कारण उपस्थित होने पर या ज्योतिष-सामुद्रिक आदि निमित्तों से अपनी आयु का अन्त समीप जानने का कर्तव्य के ज्ञानी मनुष्य को सल्लेखना धारण करना चाहिए।" यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन, चारित्रसार, उमास्वामि श्रावकाचार, हरिवंशपुराणगत श्रावकाचार आदि ग्रन्थों में भी सल्लेखना का यही काल अभिप्रेत है। ... श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों में सल्लेखना धारण करने की विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है। आचार्य समन्तभद्र का कहना है कि सल्लेखना धारण करते हुए कुटुम्ब, मित्र आदि से स्नेह दूर कर, शत्रुजनों से वैरभाव हटाकर, बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह का त्यागकर, शुद्ध मन वाला होकर, स्वजन एवं परिजनों को क्षमा करके प्रिय वचनों के द्वारा उनसे भी क्षमा मांगे तथा सब पापों की आलोचना करके सल्लेखना धारण करें। क्रमशः अन्नाहार को घटाकर दूध, छांछ, उष्णजल आदि को ग्रहण करता हुआ उपवास करें। अन्त में पंच नमस्कार मन्त्र को जपते हुए सावधानीपूर्वक शरीर को त्यागे। वसुनन्दिश्रावकाचार, श्रावकाचारसारोद्धार चारित्रसार एवं पुरुषार्थानुशासन आदि ग्रन्थों में सल्लेखना की विधि में रत्नकरण्डश्रावकाचार का ही अनुकरण किया गया है। उपासकाध्ययन में कहा गया है कि जो समाधिमरण करना चाहता है, उसे उपवास आदि के द्वारा शरीर को तथा ज्ञानभावना के द्वारा कषायों को कृश करना चाहिए।" विविध सम्प्रदायों में जलसमाधि, अग्निपात, कमलपूजा, भैरव जप आदि द्वारा प्राण विनाश में धर्म मानने की प्रथायें प्रचलित थीं और हैं, किन्तु इन्हें सल्लेखना के समान नहीं माना जा सकता है; क्योंकि इनके पीछे कोई-न-कोई भौतिक आशा या अन्य प्रलोभन अथवा पर-प्रसन्नता रूप कारण विद्यमान रहता है। सल्लेखना का उद्देश्य कोई भौतिक आशा या पर-प्रसन्नता नहीं है, अपितु इसकी आराधना तो विशिष्ट एवं अपरिहार्य शरीर-नाश के कारण उपस्थित हो जाने पर संयम की रक्षा के लिए की जाती है। उपर्युक्त जल-समाधि आदि कृत्यों में क्षणिक उद्वेग होने से दुर्ध्यान उत्पन्न हो जाता है, जबकि सल्लेखना की स्थिति ऐसी नहीं है। क्योंकि सल्लेखना तभी विधेय है जब जीवन का अन्त निश्चित रूप से समीप दृष्टिगोचर होता हो, धर्म एवं आवश्यक कार्यों का नाश हो रहा प्रतीत होता हो तथा उसके धारण करने में किसी प्रकार का दुर्ध्यान न होता हो / उसकी आराधना में दुर्ध्यान न होने पाये- इसका पूरा ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि दुर्ध्यान से 52 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004