________________ तथापि ऐसा इसलिए नहीं किया गया है ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि सभी व्रतियों को सल्लेखना आवश्यक नहीं है। इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है- 'कदाचित् कस्यचित् तां प्रत्यभिमुख्यज्ञापनार्थत्वात् सप्ततपशीलवतः कदाचित् कस्यचिदेव गृहिणः सल्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति / अर्थात् कभी-कभी तथा किसी-किसी को सल्लेखना की अभिमुखता होती है, यह बात बताने के लिए पृथक सूत्र बनाया गया है। सात शीलव्रतों को धारण करने वाला कोई-कोई श्रावक ही कभी-कभी सल्लेखना के अभिमुख होता है, सब नहीं। यहाँ यह स्पष्ट रूप से ध्यातव्य है कि कषायों को कृश न करके, केवल शरीर को ही कृश करने वाले का शरीर को कृश करना निष्फल है, क्योंकि कषायों को कृश करने के लिए ही शरीर को कृश किया जाता है, केवल शरीर को कृश करना प्रयोजनभूत नहीं है। यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि शरीर के विनाश के अनिवार्य कारण उपस्थित न होने पर संयम के विनाश के भय से श्वासोच्छवास निरोध करके शरीर के त्याग को भी धवलाकार वीरसेन स्वामी ने मंगल नहीं माना है। अतः स्पष्ट है कि प्रतीकारहीन शरीर-विनाश के कारण होने पर ही सल्लेखना का विधान है। ___ तत्त्वार्थसूत्र में पाँच अणुव्रत, तीन गुणसूत्र और चार शिक्षाव्रतों के धारक श्रावक को मारणान्तिकी सल्लेखना का आराधक कहा है। जब कोई अव्रती श्रावक व्रती होकर जीवन को बिताना चाहता है तो उसे जिस प्रकार बारह व्रतों का पालन करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार जब व्रती श्रावक मरण के समय आत्मध्यान में लीन रहना चाहता है तो उसे सल्लेखना की आराधना आवश्यक हो जाती है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में सल्लेखना का कथन श्रावकधर्म के प्रसंग में हुआ है, किन्तु यह मुनि और श्रावक दोनों के लिए निःश्रेयस् का साधन है। पं. गोविन्दकृत पुरुषार्थानुशासन में तो अव्रती श्रावक को भी सल्लेखना का पात्र माना गया है। वे लिखते हैं कि यदि अव्रती पुरुष भी समाधिमरण करता है तो उसे सुगति की प्राप्ति होती है। न केवल मनुष्य ही अपितु पशु भी समाधिमरण के द्वारा आत्मकल्याण कर सकता है। उदाहरण से स्पष्ट किया गया है कि अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाला सिंह भी मुनि के वचनों से उपशान्त चित्तं होकर और सन्यास विधि से मरकर महान् ऋद्धिवान देव हुआ। तत्पश्चात् मनुष्य एवं देव होता हुआ अन्त में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान नामक पुत्र हुआ। स्पष्ट है कि सल्लेखना सबके लिए कल्याणकारी है तथा प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाले मुनीश्वर, व्रती एवं अव्रती सब इसके अधिकारी हैं। पण्डितप्रवर आशाधर के अनुसार जन्मकल्याणकस्थल, जिन मन्दिर, तीर्थस्थान एवं निर्यापकाचार्य का सान्निध्य सल्लेखना के उपयुक्त स्थान है।" ... लाटी संहिता में भी व्रती श्रावक को मरण समय में होनी वाली सल्लेखना का प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 51