________________ का सद्भाव नहीं है, अतः वह तो अहिंसा की सिद्धि के लिए ही है।" __मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भी आत्महत्या में घृणा, असमर्थता, अहंकारी प्रवृत्ति, हीनता आदि भाव होते हैं। ये सल्लेखना में नहीं है। आत्मघात एक क्षणिक मनोविकृति है, जबकि सल्लेखना सुविचारित कार्य | आत्महत्या में आवेश तथा छटपटाहट होती है, जबकि सल्लेखना में प्रीति तथा स्थिरता। अतः स्पष्ट है कि सल्लेखना आत्मघात नहीं है। विविध सम्प्रदायों में प्रचलित जलसमाधि, अग्निपात, कमलपूजा, भैरवजप आदि द्वारा प्राणविनाश में धर्म मानने की प्रचलित प्रथायें थी, किन्तु इन्हें सल्लेखना के समान नहीं माना जा सकता है। क्योंकि इनके मूल में कोई न कोई भौतिक आशा या अन्य प्रलोभन विद्यमान रहता है, जबकि सल्लेखना की स्थिति ऐसी नहीं है। इस प्रसंग में पूज्यपाद एवं भट्ट अकलंकदेव ने एक और हेतु दिया है'मरणस्य अनिष्टत्वात्।20 उनका कहना है कि जैसे अनेक प्रकार के पण्य के लेनदेन और संचय में संलग्न किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है। यदि परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण उपस्थित हो जाएं तो पहले तो वह यथाशक्ति उन्हें दूर करता है। यदि उनका दूर करना सम्भव न हो, तो वह घर के बहुमूल्य सामान की रक्षा का प्रयत्न करता है। उसी प्रकार कोई श्रावक व्रत, शील आदि के संचय में प्रवृत्त होता हुआ उसके आश्रयभूत शरीर का नाश नहीं चाहता है। शरीर के नाश के कारण उपस्थित हो जाने पर वंह संयम की रक्षा करता हुआ यथासम्भव उनको दूर भी करता है, किन्तु यदि प्रतीकार सम्भव न हो तो संयम की रक्षा के लिए शरीर को त्याग देता है। अतः संयम की रक्षा के लिए किये गये इस प्रयास को आत्मवध नहीं कहा जा सकता है। भट्ट अकलंकदेव ने कहा है कि 'उभयानभिसन्धानात् / अर्थात् सल्लेखना के आराधक के जीवन और मरण दोनों में आसक्ति नहीं होती है। अतः मरण के अटल कारणों के आ जाने पर शरीर के त्याग में आत्मवध का दोष नहीं लगता है। भट्ट अकलंक देव ने सल्लेखना के योग्य समय का निर्देश करते हुए कहा है- जरा, रोग और इन्द्रियों की विफलता के कारण आवश्यक क्रियाओं की हानि होने पर सल्लेखना धारण करना चाहिए / अर्थात् जब व्यक्ति शरीर को दूषित कर देने वाले बुढ़ापे से बलवीर्य से हीन हो जाता है तथा वातादिजन्य रोगों से इन्द्रियों की सामर्थ्य से क्षीण हो जाता है, फलतः वह आवश्यक क्रियाओं के पालन में असमर्थ हो जाता है, तब शरीर के नाश के अनिवार्य कारण उपस्थित हो जाने से शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करना योग्य है। सूत्र शैली की दृष्टि से पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र का समाहार करना यद्यपि लघ्वर्थक होता, 50 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004