________________ भट्ट अकलंकदेव ने लिखा है- 'सल्लेखनायाः जोषितेति प्राप्नोति इति चेत्? न तृनः प्रयोगात्।। यदि कोई कहे कि यहाँ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करना चाहिए तो यह उचित नहीं है, क्योंकि यहाँ तन् प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। सल्लेखना में अवमोदर्य, अनशन आदि के द्वारा क्रमशः शरीर को कृश करते हुए उसका अन्त किया जाता है, अतः कुछ लोग सल्लेखना के लिए स्वहिंसा या आत्महत्या जैसे गर्हित शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह प्रश्न आचार्य पूज्यपाद के समक्ष भी उपस्थित रहा होगा। उन्होंने 'अप्रमत्तत्वात्' हेतु देकर सल्लेखना में हिंसात्व का निवारण किया है। हिंसा का स्वरूप बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा कहा गया है। केवल प्राणों का विनाश मात्र हिंसा नहीं है, अपितु उसमें प्रमादजन्यता आवश्यक है। स्पष्ट है कि जो प्राणों का विनाश रागद्वेष रूप प्रवृत्ति या प्रमाद के कारण होता है, वह तो हिंसा है, शेष नहीं। कभी-कभी प्रमाद का योग न होने पर भी द्रव्यप्राणों का विनाश देखा जाता है। जब साधु ईर्यासमितिपूर्वक गमन करते हैं, तब उनके रंचमात्र भी प्रमाद का योग नहीं होता है, फिर भी कदाचित् पैर से दबकर किसी क्षुद्र जीव का प्राण-विनाश सम्भव है। जैसे वहाँ हिंसा का प्रयोजक हेतु नहीं है, उसी प्रकार सल्लेखना में प्राणत्याग होने पर भी हिंसा का प्रयोजक हेतु प्रमाद नहीं होता है, अतः वहाँ स्वहिंसा या आत्महत्या जैसे शब्दों का प्रयोग करना अविचारित कृत्य है। जैनदर्शन में तो हिंसा रागादि विकारों का पर्यायवाची शब्द है। अमृतचन्द्राचार्य ने तो स्पष्टतया कहा है कि राग आदि विभावों की उत्पत्ति का न होना अहिंसा है और उन्हीं विभावों की उत्पत्ति होना हिंसा है। यही जैन सिद्धान्त का रहस्य है।" यदि प्राण-विनाश को हिंसा का लक्षण माना जाएगा तो वह अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष से दूषित होगा। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है- 'न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति / कुतः? रागाद्यभावात्। रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं घ्नतः स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति, ततो नात्मवधदोषः / अर्थात् सल्लेखना में इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि इसके रागादि का अभाव है। राग, द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष, शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके अपना घात करता है, उसे आत्मघात (स्वहिंसा) का दोष प्राप्त होता है। परन्तु सल्लेखना के आराधक जीव के राग आदि विकार नहीं होते हैं, अतः सल्लेखना में आत्मवध का दोष नहीं है। अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं कि अवश्यम्भावी मरण के समय कषायों को कृश करने के साथ शरीर के कृश करने में रागादि भावों के न होने से सल्लेखना आत्मघात नहीं है। हाँ, यदि कोई कषायाविष्ट होकर श्वासनिरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्रादि के द्वारा प्राणों का घात करता है तो वह वास्तव में आत्मघात है। सल्लेखना में कषायों प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 49