________________ एवं आवश्यक कार्यों को करना सम्भव नहीं है, तब अवमौदर्य चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त आदि उपवासों के द्वारा आत्मा का संशोधन कर संयम को धारण कर उत्तम व्रत का धारी चार प्रकार के आहार का त्याग कर जीवनपर्यन्त अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन में रत तथा स्मृति एवं समाधि में लगकर प्रीतिपूर्वक सल्लेखना का सेवन करे। ऐसा श्रावक उत्तमार्थ का आराधक होता है।" . ___बाह्य काय और आन्तरिक कषायों के कृश करने से सल्लेखना दो प्रकार की होती है। पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्य ने कषायसल्लेखना को भावसल्लेखना और कायसल्लेखना को द्रव्यसल्लेखना कहते हुए लिखा है“आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव क्रोधादिकषायरहितानन्तज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनूकरणं भावसल्लेखना, तदर्थं कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकालः।” यहाँ यह कथ्य है कि आभ्यन्तर एवं बाह्य सल्लेखना में साध्यसाधन भाव अभीष्ट है। अर्थात् बाह्य सल्लेखना आभ्यन्तर सल्लेखना का साधन है। तत्त्वार्थसूत्र में ‘जोषिता' का प्रयोग साभिप्राय है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है- “जोषिता सेविता गृहीत्यभिसंबध्यते / ननु च विस्पष्टार्थं सेवितेत्येव वक्तव्यम्, न अर्थविशेषोपपत्तेः / न केवलमिह सेवनं परिगृह्यते। किं तर्हि? प्रीत्यर्थोऽपि। यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते। सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति।'' अर्थात् जोषिता का अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला गृहस्थ है। यहाँ ‘सेविता' शब्द का प्रयोग न करके 'जोषिता' शब्द का प्रयोग किया है; क्योंकि तुदादिगण की जुष धातु प्रीति, सेवन एवं प्रीतिपूर्वक सेवन अर्थों में प्रयुक्त होती है। कुछ लोगों के मत में चुरादिगणी जुष् धातु भी परितर्पण अर्थ में प्रयुक्त होती है। इससे स्पष्ट है कि अन्तरंग प्रीति के बिना बलात् सल्लेखना नहीं कराई जाती है अपितु प्रीति के होने पर आराधक स्वयं सल्लेखना करता है। तत्त्वार्थवार्तिक में भी इस बात को स्पष्टतया कहा गया है। _ 'जोषिता' शब्द जुष् धातु से तृन् प्रत्यय से निष्पन्न रूप है, यह तृच् प्रत्यय से निष्पन्न रूप नहीं है। क्योंकि यदि तृच् प्रत्यय से निष्पन्न रूप होता तो ‘कटस्य कर्ता' के समान ‘सल्लेखनायाः जोषिता' रूप बनता। तृन् प्रत्यय के साथ पाणिनि ने 'न लोकाव्ययनिष्ठा खलर्थतनाम्' (2/3/69) सूत्रानुसार षष्ठी विभक्ति का निषेध किया है। तृन् प्रत्यय होने से ‘कर्ता लोकान्' के समान 'सल्लेखना जोषिता' में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है। यहाँ यह कथ्य है कि षष्ठी विभक्ति सम्बन्ध मात्र की विवक्षा में होती है, जबकि द्वितीया विभक्ति कर्ता के ईप्सिततम कर्म में होती है। अतः इस व्याकरण के विशिष्ट प्रयोग से यह भी धोतित होता है कि सल्लेखना शरीरनाश के अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर ईप्सिततम धार्मिक क्रिया या अनुष्ठान हैं। 4800 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004