SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधान- इसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि अकरुणा संयमघाती कर्म (प्रत्याख्यानावरणीय कर्म) के फलरूप में स्वीकार है।" करुणा जीव का स्वभाव है, धवलाकार की इस उद्घोषणा को आगे चलकर आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने तत्त्वार्थसार (8/9) में यह कहकर समर्थित किया कि सामान्य जीव का स्वभाव ही करुणामय नहीं है, अपितु मुक्त जीव भी, मुक्त होने के बाद भी करुणापूर्वक जगत् को जानते तथा देखते हैं ___ 'जानतः पश्यतश्चोर्द्ध जगत्कारुण्यतः पुनः।' दशभक्ति (15) में यह प्रार्थना की गयी है कि हे जिनेश्वर ! कारुण्यभाव से आप हमारी रक्षा करें- तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वरः। आचार्य जिनसेन ने भी महापुराण (21.5.92) में धर्म का मूल दया को माना है और प्राणियों पर अनुकम्पा करने को दया कहा है- दयामूलो भवेद्धर्मो, दया प्राण्यनुकम्पनम्। ___आचार्य वसुनन्दि ने अपने 'तत्त्वविचार' नामक ग्रन्थ में दया को सभी गुणों में प्रधान और केन्द्रबिन्दु माना है। वे कहते हैं कि जिसके मन में दया है वह तपस्वी है, जिसके दया है वह शील से युक्त है, जिसके दया है वह ज्ञानी है और जिसके दया है उसी का निर्वाण है "जस्स दया सो तवसी, जस्स दया सो य सीलसंजुत्तो। जस्स दया सो णाणी, जस्स दया तस्स णिव्वाणं / / " -(गाथा 215) जो व्यक्ति जीवदया से युक्त है उसका मनुष्य जन्म लेना सफल है, किन्तु जो जीवदया से रहित है, वह मनुष्य भेष में पशु है। यथा “जो जीवदया-जुत्तो, तस्स सुलद्धो य माणुसो जम्मो। ___ जो जीवदयारहिदो, माणुसवेसेण सो पंसवो।।" - (गाथा 216) __जिस व्यक्ति के हृदय में दया है उसके (अन्य) गुण (सार्थक) हैं, जिसके दया है उसके उत्तम धर्म है, जिसके मन में दया है वहीं सत्पात्र है और जिसके (जीवन में) दया है वह जग में पूज्य है। यथा “जस्स दया तस्स गुणा, जस्स दया तस्स उत्तमो धम्मो। जस्स दया सो पत्तं, जस्स दया सो जगे पुज्जो।।" - (गाथा 214) इसप्रकार परमपूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज ने इस बीसवीं सदी में जैन शास्त्रों में वर्णित दया, करुणा, अनुकम्पा आदि जीव के स्वभाव को क्रियात्मक रूप में प्रकट करने की प्रेरणा दी है, यही अहिंसा की सार्थकता है। ऐसी क्रियात्मक अहिंसा आज के आतंकवाद का करारा जवाब बन सकती है। सत्य का अनुभव, भेदविज्ञान और अनेकान्तवाद का अनुभव बन सकता है। यही क्रियात्मक साधना समाधि का मार्ग बन सकती है। 120 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy