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________________ तो उसका ज्ञान अपने चिन्तन में ही सीमित रह जाएगा और बद्धमूल होने पर वह एकांगी विचार पारस्परिक द्वेष और असहिष्णुता को उत्पन्न करेगा। अतएव ज्ञान की समस्त उपासना चाहनेवाले को अपने और विरोधी दोनों दृष्टिकोणों पर चिन्तन करना होगा। स्यात् यह घट है, ऐसा अनेकान्त-विमर्श सत्य बिन्दु को प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध हो। जैनधर्म में अनेकान्त दर्शन इसी एक भिन्न स्यात की प्रतीति में सहायता पहुँचाने वाला तात्त्विक विमर्श पथ है। यह अनेकान्तदृष्टि सम्यग्दर्शन है। समस्याओं के समाधान का रत्न-पुलिन है। इससे भिन्न विचारों पर आक्रोश उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि आक्रोश अथवा उत्तेजना अपने लघुत्व से उत्पन्न होती है। अनेकान्त विचारक अपने समत्व से इस त्रुटि पर सहज विजयी होता है। उसके स्थिरचित्त में इन विसंवादों से चलितभार नहीं आता, प्रत्युत अर्थ की सर्वांगपूर्णता प्रतीत कर और अधिक दृढ़स्थैर्य प्राप्त होता है। __आचार्य कुन्दकुन्द ने धम्मो दयाविसुद्धो (बोधपाहुड, गाथा 25) कहकर दया के महत्त्व को रेखांकित किया था। पंचास्तिकाय (गाथा 137) में दया के सभी कार्य अनुकम्पा नाम से वर्णित हैं “तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दठूण जो दु दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेस होदि अणुकंपा।।" अर्थात् प्यासे, भूखे अथवा दुःखी प्राणी को देखकर जो मनुष्य स्वयं व्यथित होता हुआ उसके प्रति दया का व्यवहार करता है, यही उसकी अनुकम्पा है। दया के परिवार में दान, अनुकम्पा, करुणा, उदारता, वात्सल्य, उपकार, वैयावृत्य, मैत्री, प्रमोद आदि जीवन के स्वभाव की अनेक परिणतियाँ सम्मिलित हैं। तभी उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र (7.11) में कहा कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव जीवन जीने की कला हैं। सर्वार्थसिद्धि (7.11) में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि दीनों पर अनुग्रह भाव कारुण्य है- दीनानुग्रहभावः कारुण्यम् / आचार्य वीरसेन ने करुणा को जीव का स्वभाव माना है। यथा____ “करुणाएं कारणं कम्मं करुणे त्ति ण वुत्तं? करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं? ण एस दोसो संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भुवगमादो। -(षटखण्डागम, धवला टीका, 5.5.97 पुस्तक 13, पृष्ठ 361-362) जिज्ञासा - करुणा का कारणभूत कर्म करुणाकर्म है, यह क्यों नहीं कहा? समाधान - यह इसलिए नहीं कहा क्योंकि करुणा जीव का स्वभाव है। इसे कर्मजनित (कर्म के उदय से) मानने पर विरोध आता है। जिज्ञासा - तब फिर अकरुणा (करुणाहीनता) का कारण कर्म को मानना चाहिए? प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 11
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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