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________________ अनेकान्तवाद से आतंकवाद-निवारण ___ आचार्य विद्यानन्द मुनि चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज ने समाधिमरण की अन्तिम बेला (18.9.1955) में जो अपना मंगल उपदेश दिया था उसमें संयम धारण करने की प्रेरणा थी, आत्मचिन्तन को कर्मनिर्जरा का साधन बताया गया था, संयम से ही समाधि का रास्ता सूचित किया गया था। उन्होंने कहा था कि जिनवाणी पर श्रद्धा के बिना सदगति नहीं है। सारांश के रूप में आचार्यश्री के वंचन थे___ “धर्मस्य मूलं दया। जिनधर्म का मूल क्या है? सत्य, अहिंसा / मुख से सभी सत्य बोलते हैं, पालते नहीं। मुख से कहो रसाई करो, भोजन करो; कहने से पेट भरेगा क्या? क्रिया किये बिना, भोजन किये बिना पेट नहीं भरता है बाबा / इसलिए क्रिया करने की आवश्यकता है। क्रिया करनी चाहिए, तब अपना कार्य सिद्ध होता है। बाकी कार्य छोड़ो, सत्य-अहिंसा का पालन करो। सत्य से सम्यक्त्व आ जाता है। अहिंसा में किसी जीव को दुःख नहीं दिया जाता / अतः संयम का पालन करो, सम्यक्त्व धारण करो, तभी आपका कल्याण होगा, इसके बिना कल्याण नहीं होगा।" परमपूज्य आचार्यश्री के इन मंगल वचनों में सत्य पर जो जोर दिया गया वह अनेकान्तवाद की दृष्टि को सर्वोच्च मार्ग बताने का द्योतक है और जो आचार्यश्री ने अहिंसा की व्याख्या की है कि किसी जीव को दुःख नहीं देना अहिंसा है, वही दया धर्म है। इसी अहिंसा या दया के पालन द्वारा आतंकवाद से विश्व को छुटकारा मिल सकता है। अनेकान्त दृष्टि से सभी जीवों को जीने का अधिकार मिलता है एवं स्वयं अनेकान्ती जीव भी सुरक्षापूर्वक जी सकता है। 'जीओ और जीने दो' इसी अनेकान्त का विस्तार है। अहिंसा ही उसकी संजीवनी है। जबकि आतंकवाद मरने और मारने का विष फैलाता है। आचार्यश्री ने इन दो शब्दों मेंसत्य और अहिंसा में सम्पूर्ण जैनधर्म की परम्परा और ज्ञान को समाहित कर दिया है। विश्व के प्राणियों में विचार-भिन्नता दृष्टिगत होती है। यह आश्चर्य का विषय नहीं, क्योंकि व्यक्तियों का चिन्तन स्वतन्त्र और बहुमुखी होना स्वाभाविक है। यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक दूसरे व्यक्ति के भिन्न चिन्तन को विरोध की दृष्टि से देखेगा 1000 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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