________________ रहे। शरीर की सहायता से आचार्यश्री ने शरीर के ही विविध अंग-प्रत्यंग और भावों को भुलाकर आत्मजागृति की। अब उनका शरीर थकने लगा था, इस शरीर को कभी-न-कभी त्यागना पड़ता है, परन्तु उसमें निवास करनेवाली आत्मा अजर-अमर होती है। इस दार्शनिक तत्त्व की जानकारी सभी को होती है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए जीवन का अन्तिम क्षण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। शरीर को कैसे त्यागा जाता है, उसका त्याग किस तरह करें, इसका योगी-साधु समाज के सामने अन्तिम समय में एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की जाती है, उसी प्रकार शरीर से आत्मा को अलग करें। शरीर और आत्मा को अलग करने का एक प्रात्यक्षिक सल्लेखना के समय में घटित होता है। इसीलिए जैनशास्त्रों में सल्लेखना को तेरहवाँ सर्वोत्कृष्ट व्रत माना है। व्रतशिरोरत्न के बारे में कहा जाता है कि यह व्रतों के स्वर्णमन्दिर का रत्नों से परिपूर्ण शिखर है। अर्थात् सभी व्रतों में सल्लेखना व्रत सर्वश्रेष्ठ है। सल्लेखना का स्वरूप 'मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता' मोक्षशास्त्र के व्रत प्रकरण में एक सूत्र है। धर्माज्ञा है कि मृत्यु समय में सल्लेखना सन्तोष के साथ धारण करनी चाहिए। जैनाचार्यों ने सल्लेखना पर स्वतन्त्र रूप से सर्वांगीण विचार कर, कई ग्रन्थों का लेखन किया है। अन्तिम काल में सल्लेखना में मग्न साधक शरीर को यज्ञ बना कर कषाय विकारों की आहुति देकर आत्मा की आराधना करता है। इसीलिए सल्लेखना को भगवती आराधना भी कहा जाता है। अन्तिम काल में मोक्षमार्ग पर चलनेवाला साधक सल्लेखना का व्रत अपनाता ही है। आचार्य शान्तिसागर जी ने भी बिल्कुल सहज भाव से अन्तिम समय में सल्लेखना व्रत को स्वीकार किया था। वे स्वयं महाव्रती थे। उन्हें पता था कि जो निःशल्य होता है वही व्रती हो सकता है। वैसे देखें तो अहिंसा तथा अन्य पंच महाव्रत निःशल्य होकर ही आचरण में लाए जाते हैं। मायाचार, मिथ्यात्व और निदान (भावी भोगाकांक्षा) आदि का त्याग करना ही निःशल्य होना है। देह-भावना के अस्तित्व को छोड़ते जाना और विशुद्ध आत्मा की अनुभूति होना ही सच्ची निःशल्यता है। जब तक हृदय में माया, मिथ्यात्व और निदान हैं तब तक वे काँटे के समान चुभते रहते हैं। जीव निःशल्य और निर्द्वन्द्व नहीं रह सकता। उसके लिए विशुद्ध आत्मा की प्राप्ति असम्भव होती है। उपर्युक्त (माया, मिथ्यात्व और निदान) दुःख स्व-स्वरूप की समाधि धारण करने में बाधक है। माया अर्थात् कुटिलता के भाव / मन-वचन-काय की विविध विकल्प अवस्था में माया बहुत बड़ा शल्य है। इसीलिए माया को त्यागे बिना निर्विकल्पता प्राप्त नहीं हो सकती और स्वत्व की अनुभूति भी नहीं की जा 10800 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004