________________ सल्लेखना : सार्वकालिक उपयुक्तता Ey डॉ. सुभाषचन्द्र अक्कोळे प्रमादरहितों की निरन्तर जागृति "स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः / त्वामार्य नक्तंदिवमप्रमत्तवान् अजागरेवात्मविशुद्धवर्त्मनि।। 48 ||" -(स्वयम्भू स्तोत्र) आचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भू स्तोत्र में भगवान शीतलनाथ की स्तुति करते हुए सामान्य लोगों और अध्यात्म मार्ग की उपासना करनेवाले असामान्य लोगों के दिनक्रम का मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है। आम आदमी अपने जीवन और विषयसुखों की पूर्ति के लिए दिन भर कष्ट उठाता है, और कठोर परिश्रम करता है। कामसुख और विषयसुखों की पूर्ति के लिए वह पशुवत परिश्रम करता है। आम आदमी दिनभर की थकावट से रात्रि समय में अपनी आत्मा को भूल जाता है और गहरी नींद में खोने लगता है परन्तु हे पुरुषोत्तम शीतल प्रभो ! आप प्रमादरहित हैं, आपने विषय वासनाओं का त्याग किया है, इसीलिए तो विशुद्ध आत्मस्वरूप में रात-दिन जागृत रहते हैं। आचार्यश्री शान्तिसागर जी का सन्दर्भ जिनका देह से लोभ समाप्त हो जाता है, उनके जीवनक्रम में सुखासीनता के लिए विकल्प नहीं होता और प्रमाद का भी कोई स्थान नहीं रहता। ज्ञान भावों की * साधना जारी रहती है। दिन हो या रात उनकी आत्मा जागृत रहती है और वे उसी परमानन्द में, दिन-रात भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं। इस अर्थ से माना जा सकता है कि अपने 84 वर्ष के जीवन में आचार्य शान्तिसागर जी सदैव आत्म जागृत रहे। विशेषरूप से दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् पैंतीस वर्षों की अवधि में उन्होंने आत्मजागृति की निरन्तर उपासना की। उन्होंने स्वयं को विषयसुखों एवं विकल्पों से दूर रखा। अपनी आत्मस्वरूप भीतरी शक्ति में मग्न रहनेवाले आचार्यश्री उसके रसास्वाद का अनुभव करते समय शरीर के अस्तित्व को भुलाकर निरन्तर जागृत प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 107