________________ सकती। निर्विकल्प स्वरूप के अमृतोपम आनन्द का आस्वाद लेने वाले साधक को भविष्यकालीन भवसम्बन्धी भोगाकांक्षा (निदान) के विचारों का प्रश्न ही कहाँ होता है? भविष्यकालीन भवसम्बन्ध में आशा-आकांक्षा ही निदान है। मरणोपरान्त क्या? यह सवाल जिसके मन में उपस्थित होता है क्या वह वर्तमान में निर्विकल्प रह सकता है? इसीलिए सल्लेखना की पवित्र आत्मसाधना के दौरान माया, मिथ्यात्व और निदान को सहजता के साथ त्यागा जाता है और आत्मतत्त्व की अनुभूति शुरू होती है। मुक्तियात्रा के दौरान साधक अपने दिलो-दिमाग में यह तय करता है कि सभी कर्मफलों का त्याग कर विकल्पाश्रित सभी क्रियाओं की आसक्ति से ऊपर उठकर तन्मय मन से चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व की उपासना करे ताकि अनन्तकालीन भविष्य का सफर तय हो जाए। जैन आचार धर्म का सार यही है कि प्रत्येक साधक सल्लेखना व्रत को स्वीकार कर अन्तिम समय में निर्विकल्प बने। जीवन में इस साधना क्षण में केवल आत्मा की आनन्द अनुभूति के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रहता है। इसप्रकार की स्थिति को जो साधक प्राप्त कर सकता है, वही समाधिमरण कर सकता है। यह संसार एक महार्णव के समान है। जीव को पुण्य से प्राप्त यह मनुष्य देह भवसागर को पार करने में नौका जैसी सहायक है। धैर्यमेरु जीव, ज्ञानी नाविक के समान इस नौका का प्रयोग कर संसाररूपी महोदधि से पार होता है। इस संसार को पार करनेवाले महर्षि सदासर्वदा के लिए वन्दनीय हो जाते हैं। ध्रुव तारे के समान मुक्ति का लक्ष्य आँखों के सामने रखते हुए अपने जीवन की नौका हॉकने वाले इन साधकों की योग्यता का कितना वर्णन करें? कन्नड़ भाषा में कहावत हैशरणों की परीक्षा मरण में है शरण अर्थात् साधु की परीक्षा मृत्यु के समय ही होती है। उनकी सत्त्वकसौटी या सत्त्वपरीक्षा की घड़ी भी वही होती है। सल्लेखना का अर्थ पण्डित मरण या मृत्यु महोत्सव - प्रायः सभी जीव मृत्यु से डरते हैं। पराक्रमी धैर्यवान पुरुष हो या कोई भयग्रस्त मनुष्य हो, मृत्यु सबके लिए निश्चित है। इस संसार में आगमन के आनन्द को बिना समझे ही हम लोग जन्मते हैं और मृत्यु के समय भयभीत रहते हैं। इसीलिए यमराज पर विजय प्राप्त करनेवाले साधु सबके पूजनीय होते हैं। पशु के समान अज्ञानी रहकर मृत्यु के अधीन होने की अपेक्षा ज्ञानपूर्वक मृत्यु का स्वागत कर स्वत्व के साथ जीवनयात्रा की समाप्ति करना उत्कृष्ट मरण है। वह एक नियमबद्ध शास्त्र है। इसतरह का पण्डित मरण जीव के अगले कई जन्मों को नाश करता है। इसीलिए प्रज्ञावंतों को ऐसी मृत्यु प्राप्त करनी चाहिए जिससे मरण भी सुमरण हो जाए। प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 109