SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता में मृत्यु की संकल्पना किया गया है, उसमें बार-बार यह बात कही गयी है कि आत्मतत्त्व नित्य है, अविनाशी है, अप्रमेय है, अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य है, अशोष्य है, शाश्वत् है, सर्वगत है, स्थाणु है, अचल है, अव्यय है, सनातन है, अव्यक्त है, चेतन है, अचिन्त्य है, अविकारी है, अवध्य है, अज है, अमर है, त्रिगुणातीत है, किंवा स्वयं परमात्म तत्त्व है। जीव रूप में देह में स्थित है। आत्मतत्त्व का ही दूसरा नाम पुरुष है। प्रकृति आत्मतत्त्व से भिन्न सत्ता है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है। इसमें सत्, रज, तम, तीन गुण होते हैं। प्रकृति का एक नाम माया भी है। माया अथवा प्रकृति को जड़ माना जाता है। जड़ होते हुए भी प्रकृति जीव की दृष्टि-क्रिया में व्यवधान उपस्थित करती है, सत्यासत्य, नित्यानित्य का ज्ञान प्राप्त करने में बाधा डालती है। प्रकृति एवं पुरुष के संयोग से ही जन्म अथवा सर्ग की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। सारी लीला, सारा प्रपंच, प्रकृति का है, माया का है, पुरुष अथवा आत्मतत्त्व को इस लीला का माध्यम बनाया जाता है। गीता की मान्यता है कि पुरुष अथवा आत्मतत्त्व न जन्म लेता है और न ही उसकी मृत्यु होती है। जन्म-मृत्यु तो प्रकृति का धर्म है। जब जड़ प्रकृति का संयोग अव्यक्त एवं चेतन पुरुष के साथ होता है तो वह अव्यक्त से व्यक्त हो जाता है। व्यक्त होने के कारण उसकी संज्ञा “व्यक्ति” होती है। व्यक्ति, वैसे तो भाववाचक संज्ञा है पर क्रमशः इसका प्रयोग जातिवाचक संज्ञा के रूप में होने लगता है। आत्मतत्त्व अथवा पुरुष स्वभावतः अव्यक्त होता है। प्रकृति के सम्पर्क में आने के कारण वह अव्यक्त से व्यक्त होता जाता है। परन्तु जब प्रकृति से उसका पार्थक्य होता है तो वह पुनः अपनी मूलस्थिति अथवा अव्यक्त स्थिति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति से जीव का पार्थक्य ही मृत्यु है। ज्ञातव्य है कि आत्मतत्त्व में कृतित्व एवं भोक्तृत्व के गुण नहीं होते। परन्तु जब आत्मतत्त्व प्रकृति के सानिध्य में आता है तब उसमें भोक्तृत्व एवं कृतित्व जैसे गुण आ जाते हैं। वह प्रकृति के गुणों का भोग करने लगता है और प्रकृति से सान्निध्य के कारण ही उसका जन्म सत् और असत् योनियों में होता रहता है। पुरुष जब प्रकृति से संयोग की स्थिति में आता है तब वह देहगत हो जाता है। उसे देह में रस आने लगता है। वह देहगत ज्ञानेन्द्रिय-प्रावधानों का उपयोग करके उसी में रमने लगता है। उसे देह ठीक उसी प्रकार मधुर लगने लगती है जैसे कमलकोष में बन्द भ्रमर को कोष से रसानुभूति मिलती है। जीव अथवा पुरुष आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा तथा मन के माध्यम से विषय का सेवन करता है। देह में उसकी आसक्ति होने लगती है। भ्रमवश वह स्वयं को देह का पर्याय मान लेता है। जब पुरुष अथवा जीव देह से पृथक् होता है तो इस स्थिति को ही मृत्यु कहते हैं। * पार्थक्य के इस क्रम में मृत्यु देह की होती है, जीव की नहीं। देह की मृत्यु भी देह के विनाश के अर्थ में नहीं होती। मृत्यु-क्रम में पंचभूतों से निर्मित देह तत्त्व-भूतों में पुनः लौट जाते हैं। भूतों का लौटकर अपनी मूल-स्थिति में जाना ही मृत्यु है। मृत्यु की घटना पुराने वस्त्रों को उतारने जैसी है। पुनर्जन्म की घटना नये वस्त्रों को धारण करने जैसी है।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy