________________ मृत्यु की अवधारणा - इस्लाम की दृष्टि में क्रमागत आयत में वर्णन है कि - फिर तुम सब कयामत के दिन अपने पालनहार के सामने झगड़ोगे। (23 अल ज़मर, 31) असंगत विचार का खण्डन कुछ लोग संसार में ऐसे भी पाये जाते हैं कि जो मात्र सांसारिक जीवन को ही सब कुछ समझते हैं और मृत्यु को एक संयोग ही समझते हैं। - उन्होंने कहा कि हमारा जीवन तो मात्र सांसारिक जीवन ही है। हम मरते हैं और जीवित होते हैं। हमें केवल काल (समय का संयोग) ही मारता है। वास्तव में उन्हें इसका कुछ ज्ञान नहीं यह तो केवल अटकल से ही सोच रहे हैं। (25 अल जासीय, 24) मृत्यु के स्मरण का लाभ मृत्यु की वास्तक्किता पर दृष्टि रखने वाला उसे कभी भूल नहीं सकता है। प्रत्येक मनुष्य का यह परिणाम है और वह उस सत्य को सदैव देखता रहता है। नाना प्रकार के मनुष्य उसके सामने इस संसार से प्रस्थान करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में मृत्यु को भूलने का कोई प्रश्न ही नहीं। विद्वानों ने मृत्यु के स्मरण से प्राप्त लाभों में से एक लाभ यह बताया है कि इस प्रकार मनुष्य नवजीवन की तैयारी करता है अर्थात् पुण्य कार्य की तरफ प्रेरित होता है तथा सांसारिक कष्ट सरल मालूम होने लगते हैं। हज़रत “कअब” कहा करते थे कि “जो मनुष्य मृत्यु की वास्तविकता भली-भांति समझ जाएगा उसके लिए सांसारिक दुःख-संकट सरल हो जायेंगे"। (अहयाउल उलूम, 4/560) मृत्यु जब निकट हो मृत्यु जब निकट आती है तब मनुष्य को “सकरात” (एक विशेष स्थिति) में घोर पीड़ा का अनुभव होता है। विद्वानों का मत है कि इससे बढ़कर कोई पीड़ा नहीं है। इससे कोई भी व्यक्ति उबर नहीं सकता कि दूसरों से अपना अनुभव व्यक्त करे, फिर भी कुछ महान् विद्वानों के कथनों द्वारा मृत्यु के संकट का अनुमान लगाया जा सकता है। 1. हज़रत आयशा कहती हैं कि नबी स. पर मृत्यु का संकट देखने के पश्चात् किसी की मृत्यु में आसानी पर मुझे लोभ नहीं आ सकता। 2. इमाम अवजाई कहते हैं कि "कब्र से उठने तक मृतक को मौत की तकलीफ का आभास शेष रहता है। 3. शदाद बिन अवस कहते हैं कि “मोमिन के लिए मृत्यु यह लोक और परलोक में सबसे भयानक कष्ट है। यह आरा से चीरने, कैंची से काटने और हांडी में पकाने जैसी तकलीफ से भी अधिक भयानक है"।