________________ जैन धर्म में जन्म और मृत्यु अणुपिण्डों को ग्रहण करता है वही ओज-आहार कहलाते हैं। यही प्राणी के समूचे जीवन का आधार है। प्राणी के शरीर का निर्माण - श्वासोच्छवास - आंख, कान, आदि इन्द्रियों का निर्माण, वाक् सामर्थ्य का निर्माण यह सब बाद की क्रमशः निष्पत्तियाँ होती हैं। जैन धर्म में इन्हें छ: पर्याप्तियों के नाम से जाना जाता है। ये हैं - आहार-पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, श्वासोच्छवास-पर्याप्ति, भाषा-पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति / जन्म के प्रारम्भ में जीव के द्वारा जो पौद्गलिक शक्ति का निर्माण होता है वह “पर्याप्ति” है - भवारम्भे पौद्गलिक सामर्थ्य निर्माणं पर्याप्तिः। संस्कारात्मक राग-द्वेषयुक्त जीव का पुद्गल सम्बन्ध से सर्वप्रथम आहार-पर्याप्ति का निर्माण होता है, तत्पश्चात् अन्य पर्याप्तियों का निर्माण अंतर्मुहूर्त समय में क्रमशः होता है। आहार-पर्याप्ति के माध्यम से प्राणी आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, और आहार के रूप में उनका परिणमन करता है। उसके पश्चात् क्रमशः शरीर-इन्द्रियश्वासोच्छवास-भाषा, मन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है। इस प्रकार से क्रमशः परिणमन और उत्सर्ग के द्वारा आहार-पर्याप्ति आदि छ: पर्याप्तियों का निर्माण होता है। इस प्रकार किसी भी प्राणी के सम्पूर्ण जीवन की रचना और क्रियायें इन्हीं पर्याप्तियों के आधार पर होती हैं। लेकिन यहाँ ध्यानाकर्षक बात यह है कि ये पर्याप्तियाँ मात्र पौद्गलिक शक्तियाँ हैं. इनमें संवेदनशीलता का सर्वथा अभाव होता है। अतः इनके संचालन और क्रियाशीलता का आधार कोई दूसरा तत्त्व है, जिसे धर्म में "प्राण तत्त्व” कहा गया है। प्राण का अर्थ है - जीवन - शक्ति जो चैतसिक होने से संवेदनशील होता है। प्राण अपनी अभिव्यक्ति पाने के लिए पर्याप्तियों की अपेक्षा रखता है और प्राण की ऐसी प्राकृतिक प्रवृत्ति ही जीव और पुद्गल के तादात्म्य का मूल कारक है। प्राण और पर्याप्ति में मूल अन्तर यह है कि प्राण आत्मिक शक्ति है जबकि पर्याप्ति जीव के द्वारा ग्रहण की गयी पौद्गलिक शक्ति है। आत्मा की सभी कायिक, मानसिक प्रवृत्तियाँ बाह्य एवं शरीर सापेक्ष हैं, जो पुद्गल-द्रव्य के ग्रहण से निर्मित होता है। इन प्रवृत्तियों का सम्पादन करने वाली शक्ति का नाम “प्राण तत्त्व है। जिन पौद्गलिक शक्तियों के माध्यम से ये क्रियायें सम्पादित होती हैं वही पर्याप्तियाँ हैं। पर्याप्ति और प्राण में कार्य-कारण का सम्बन्ध है। पर्याप्ति कारण है, और प्राण उसका कार्य / क्योंकि आत्मा का पुद्गल से संयोग होने पर ही पर्याप्ति का निर्माण होता है और आत्मा “प्राण तत्त्व' के रूप में पर्याप्तियों में अपनी अभिव्यक्ति पाती है। इसलिए प्राण का असाधारण कारण पर्याप्तियाँ ही है। पाँच इन्द्रियों का कारण इन्द्रिय-पर्याप्ति है। मनोबल, कायबल एवं वचनबल के कारण क्रमशः मनः-पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति और भाषा-पर्याप्ति है। श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति का कारण होता है - पान-अपानव्यानं-उदान, एवं आयुष्य प्राण का कारण है आहार पर्याप्ति / आहार पर्याप्ति के आधार पर ही 6. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 197 |