SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 42. मृत्यु की दस्तक आयुष्य प्राण टिकता है, और इसकी समाप्ति ही मृत्यु है। शार्ङ्गधर का भी मत है - शरीर और प्राण का संयोग आयुष्य है, और इनका वियोग मृत्यु है।' इस प्रकार जैन मान्यता के अनुसार आहार-पर्याप्ति के निर्माण समय में ग्रहण किया गया ओज-आहार और आयुष्य-प्राण ही प्राणी को शरीर विशेष में जीवित रखते हैं। इसका क्षीण हो जाना ही मृत्यु है। जब तक यह समाप्त नहीं होता, प्राणी का शरीर विगलित क्यों न हो जाये, शरीर के यंत्र - फेफड़े, हृदय-मस्तिष्क, क्यों न अपना काम बन्द कर दें, इन्द्रियाँ क्यों न शिथिल हो जाएं, श्वासोच्छवास भी स्थगित हो जाए, फिर भी प्राणी जीवित रहता है। दूसरी ओर शरीर-इन्द्रियाँ सब कुछ स्वस्थ क्यों न रहें, लेकिन यदि एक शरीर में ओजआहार की शक्ति क्षीण हो जाना है। ऐसी ही मृत्यु यथार्थ मृत्यु होती है जो आजकल प्रायः होती ही नहीं। मृत्यु की सभी घटनाओं का कारण कोई-न-कोई व्याधि या बाह्य असंतुलन होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्वास या हृदयगति अथवा स्थगित मानसिकीय विद्युत तरंगों को विज्ञान पुनः संचालित करने में सफल क्यों न हो जाए, वह प्राणी को मृत्यु के पंजे से नहीं बचा सकता है। मृत्यु का सम्यक् स्पष्टीकरण जैन धर्म में वर्णित शरीर विभाग के वर्णन से भी हो जाता है। सामान्यतः प्राणी के तीन शरीर होते हैं - औदारिक, तेजस् और कार्मण / स्थूल पुद्गलों से निर्मित शरीर, जिसका छेदन-भेदन सम्भव है, वह है औदारिक शरीर / जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार के परिपाक का हेतु और दीप्ति का निमित्त होता है वह है तेजस् शरीर / जो शरीर कर्मजन्य है वही कार्मण शरीर कहलाता है। इसे कर्म-पिण्ड या कर्म-समूह भी कहते हैं। व्यावहारिक जीवन में कर्म रूप, काम, क्रोध, राग, द्वेष, इच्छा, वासना, सभी संस्कार रूप में आत्मलिप्त रहते हैं, इससे ही कार्मण शरीर का निर्माण होता है। कार्मण और तेजस् शरीर सूक्ष्म होते हैं इसलिये मृत्यु के पश्चात् भी वे आत्मा के साथ रहते हैं। अतः जैन मान्यता के अनुसार मृत्यु का वास्तविक अर्थ - “आत्मा का अपने औदारिक शरीर से विलग होना है।" मृत्यु के पश्चात् आत्मा अपने कार्मण और तेजस् शरीर से युक्त रहते हुए, ऋजु या विग्रह गति से अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाती है, जहाँ उसे पुनः जन्म लेना है। इस प्रकार प्राणी की मृत्युकर्म-संस्कार के अनुरूप ऋजु या विग्रह गति, स्त्री-पुरुष के रति-क्रिया से संसेचित भ्रूण में प्रवेश, गर्भ-काल और शिशु का जन्म यह नये शरीर के ग्रहण एवं विकास का क्रम है। यही आध्यात्मिक जीवन का रहस्य है। 7. शाङ्गधर संहिता, 5/45/| ___8. जैन धर्म में प्राणी के पांच शरीर बताये गये हैं - देखें, सर्वार्थसिद्धि, 2/26 | 9. तत्त्वार्थ सूत्र, पं. सुखलालजी, पृ. 79 / 10. वही, पृ. 711
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy