________________ 40. मृत्यु की दस्तक विज्ञान मृत्यु को जीवन का सर्वथा अन्त मानकर एवं पुनर्जन्म को नकारकर, भौतिक शरीर को ही अमर बनाने का प्रयास करता है। लेकिन धर्म-दर्शन, जो अध्यात्म-विद्या (चेतना का विज्ञान) है, के अनुसार मृत्यु जीवन का अन्त नहीं मात्र शरीर का परिवर्तन है। वस्तुतः जीवन स्वतंत्र चेतन तत्त्व आत्मा की अहर्निष काल यात्रा है, जिसमें जन्म एवं मृत्यु पुनःपुनः आने वाले संध्या और प्रभात हैं। इसलिए धर्म-दर्शन इस भौतिक शरीर को अमर बनाने का प्रयास नहीं करता है? बल्कि उस महामरण का सहर्ष स्वागत करता है, जिसके बाद पुनर्जन्म न हो। यह चरम मृत्यु जैन धर्म के अनुसार आवरणों से मुक्त हो जाने पर प्राप्त होती है, यही सभी धर्मों में शाश्वत् शान्ति “मोक्ष की अवस्था है। जैन धर्म में मृत्यु के रहस्य के उद्घाटन का एक अनुभवसंगत, बुद्धिसंगत और विज्ञानसंगत प्रयास किया गया है। इसके अनुसार आत्मा और पुद्गल का संयोग ही जीवन का मूल तत्त्व है। इसी से शरीर-मन-प्राण का आविर्भाव होता है। आत्मा और पुद्गल का संयोग क्यों होता है? यह एक अनादि प्रश्न है, लेकिन बौद्धिक दृष्टि से “कर्म” को इसका हेतु माना जाता है। आत्मा और पुद्गल का संयोग हो जाने पर दोनों अपनी शुद्ध स्थिति में नहीं रहते हैं बल्कि एक-दूसरे को प्रभावित करने लगते हैं। पुद्गल से सम्बन्धित होने पर ही जीव में राग उत्पन्न होता है और कर्म व्यापार शुरु होता है। आत्मा की शुद्ध स्थिति में (पुद्गल वियुक्त) कर्म की कोई सम्भावना नहीं है। हम जो भी कर्म करते हैं, वह सभी राग-द्वेषजन्य हैं। राग-द्वेषयुक्त जीव की प्रत्येक मानसिक-कायिक-वाचिक क्रिया के साथ एक पौद्गलिक द्रव्य, जिसे उनकी परम्परागत शब्दावली में कर्म पुद्गल कहा जाता है, जीव की ओर आता है, और जीव को आवृत्त कर लेता है। वस्तुतः यही बन्धन है। स्पष्ट है जब आत्मा और पुद्गल का संयोग ही जीवन का मूल तत्त्व है, तो उनका सम्बन्ध-विच्छेद ही मृत्यु होगा। इस सम्बन्ध-विच्छेद की दो अवस्थायें हैं, प्रथम आत्यन्तिक-विच्छेद, जो मोक्ष है और दूसरा आंशिक विच्छेद जो सांसारिक मृत्यु है। प्रथम में आत्मा का पुनः पुद्गल संयोग नहीं होता है, दूसरे में कर्मावरण शेष होने से पुनः संयोग होकर शरीर बनता है और पुनर्भव होता है। सामान्यतया मृत्यु का मंतव्य इसी दूसरे प्रकार के आंशिक सम्बन्ध-विच्छेद से है। इसे जैन अपनी पारम्परिक शब्दावली में पुराने आयु-कर्म के दलिकों का क्षीण होना कहते हैं। इसलिए जैन धर्म में इस मृत्यु का अर्थ आत्मा का औदारिक शरीर से पृथक् होना है। इसका कारण ओज-आहार की प्रक्रिया का शरीर में रुक जाना है। ओज-आहार का अर्थ है, जीवन को धारण करने वाली पौद्गलिक शक्ति, जिसके द्वारा आत्मा तीन शरीर और छ: पर्याप्तियों को ग्रहण करती है। प्राणी जब गर्भस्थ होता है तो प्रथम क्षण में वह जिन पुद्गलों ___3. गीता, 2/22/ और 6/3 | 4. प्रवचनसार - उद्धृत, भारतीय दर्शन, डा.बी.एन. सिंह, पृ. 154 | 5. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 186 |