________________ आराधना की जैन अवधारणा एवं सल्लेखना 35 संयम की आराधना करने पर तप की आराधना नियम से होती है, किन्तु तप की आराधना से चरित्र की आराधना भजनीय है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है तो उसका तप हाथी के स्नान की तरह व्यर्थ है। अतः सम्यकत्व के साथ संयमपूर्वक ही तपश्चरण करना कार्यकारी होता है, इसलिये चरित्र की आराधना में सबकी आराधना होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही सम्यक्चारित्र होता है। इसलिये सम्यक्चारित्र की आराधना में सबकी आराधना गर्भित है। इसी से आगम में आराधना को चरित्र का फल कहा गया है और आराधना परमागम का सार है क्योंकि बहुत समय तक ज्ञान, दर्शन और चरित्र का निरतिचार पालन करने पर भी यदि मरते समय उनकी विराधना कर दी जाये तो उसका फल अनन्त संसार है। इसके विपरीत अनादि मिथ्यादृष्टि भी चरित्र की आराधना करके क्षणमात्र में मुक्त हो जाते हैं। अतः आराधना ही सारभूत है। ध्यातव्य है कि दर्शन, ज्ञान, चरित्र एवं तप का उल्लेख अन्य आगम साहित्य में भी हुआ है किन्तु वहाँ उनके लिए "आराधना" शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया। भगवती आराधना में सर्वप्रथम इस प्रसंग में आराधना का उल्लेख हुआ है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से मरण समाधि का कथन है। मरते समय की आराधना ही यथार्थ आराधना है, उसी के लिये जीवन भर आराधना की जाती है; उस समय विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है और उस समय की आराधना से जीवन भर की आराधना सफल हो जाती है। अतः जो मरते समय आराधक होता है यथार्थ में उसी के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तप की साधना को “आराधना” कहा जाता है। जिनागम में तीर्थकरों ने मरण के सत्रह प्रकार बताये हैं - 1. अवीचिमरण, 2. तद्भवमरण, 3. अवधिमरण, 4. आद्यन्तमरण, 5. बालमरण, 6. पंडितमरण, 7. आसण्णमरण, 8. बालपंडितमरण, 9. सशल्लमरण, 10. बलायमरण, 11. वसट्टमरण, 12. विप्पाणसमरण, 13. गिद्धपुट्ठमरण, 14: भक्तप्रत्याख्यानमरण, 15. इंगिनीमरण, 16. प्रायोपगमनमरण, और 17. केवलीमरण | ___ किन्तु भगवती आराधना के ग्रन्थकार ने संक्षेप में पाँच प्रकार के मरणों का उल्लेख किया है - पण्डित-पण्डितमरण, पण्डितमरण, बालपण्डितमरण, बालमरण और बालबालमरण / क्षीणकषाय और केवली का मरण पण्डित-पण्डितमरण है और विरता-विरत श्रावक का मरण बालपण्डितमरण है। अविरत सम्यग्दृष्टि के तीन भेद हैं - भक्तप्रतिज्ञा, प्रायोपगमन और इंगिनी। यह मरण शास्त्रानुसार आचरण करने वाले साधु का होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में मरण के दो भेद हैं - बालमरण एवं पण्डितमरण, जबकि स्थानांग में अप्रशस्तमरण और प्रशस्तमरण। बालमरण एवं अप्रशस्तमरण के बारह प्रकार बताये गये 1. बलन्मरण - परिषहों से पीड़ित होने पर संयम त्याग करके मरना। 2. वशार्तमरण - इन्द्रिय विषयों के वशीभूत होकर मरना।