________________ 36 . मृत्यु की दस्तक 3. निदानमरण - भावी जीवन में धन, वैभव, भोग आदि की प्राप्ति की इच्छा रखते हुए . . मरना। 4. तद्भवमरण - मरकर उसी भव में पुनः उत्पन्न होना और मरना। 5. गिरिपतनमरण - पर्वत से गिरकर मरना। 6. तरुपतनमरण - वृक्ष से गिरकर मरना। जलप्रवेशमरण - नदी में बहकर या जल में डूबकर मरना। 8. अग्निप्रवेशमरण - आग में झुलसकर मरना। विषभक्षणमरण - विषपान करके मरना। 10. शस्यावपाटनमरण - शस्त्र की सहायता से मरना। 11. वैहायसमरण - फाँसी की रस्सी में झूलकर मरना। 12. गिद्धपट्ठ या गृद्धस्पृष्टमरण- विशालकाय मृत पशु के शरीर में प्रवेश करके मरना। पण्डितमरण अथवा प्रशस्तमरण के दो भेद हैं - 1. भक्तप्रत्याख्यानमरण - आहार-जल का क्रम से त्याग करते हुए समाधि. पूर्वक प्राण त्याग करने को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। 2. प्रायोपगमनमरण - कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट पड़े रहकर प्राण त्यागने को प्रायोपगमनमरण कहते हैं। भक्तप्रत्याख्यान एवं प्रायोपगमन दोनों ही प्रकार के मरण को उत्तम माना गया है जबकि अप्रशस्तमरण के बारहों प्रकार के मरण को अधम कोटि का माना गया है। भगवती आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद किये गये हैं - सविचार एवं अविचार / यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है अन्यथा सविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है। भक्तप्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष कहा गया है। साधक चार वर्ष तक अनेक प्रकार के कायक्लेश करता है। दध आदि रसों को त्यागकर चार वर्ष तक शरीर को सुखाता है। आचाम्ल और निर्विकृति के द्वारा दो वर्ष बिताता है। आचाम्ल के द्वारा एक वर्ष बिताता है। मध्यम तप के द्वारा शेष वर्ष के छह माह और उत्कृष्ट तप के द्वारा शेष छह मास बिताता है। इस प्रकार शरीर की सल्लेखना करते हुए वह परिणामों की विशुद्धि की ओर सावधान रहता है। एक क्षण के लिये भी उस ओर से उदासीन नहीं होता। सल्लेखना के दो भेद हैं - बाह्य और आभ्यन्तर / शरीर को कृश करना बाह्य सल्लेखना है और कषायों को कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है। बाह्य सल्लेखना के लिए छः प्रकार