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________________ आराधना की जैन अवधारणा . एवं सल्लेखना - सुधीर कुमार राय आचार्य शिवार्य रचित भगवती आराधना और अपराजित सूरि रचित इसकी टीका विजयोदया एक ऐसी परम्परा के ग्रन्थ हैं जिनमें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के कुछ लक्षण विद्यमान हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय साधुओं के वस्त्र-पात्रादि का समर्थक ही नहीं, अपितु पोषक भी है। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में यह स्वीकृत नहीं है। दूसरी ओर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में आगम ग्रन्थ मान्य है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं। भगवती आराधना और इसकी टीका से प्रकट होता है कि एक ओर इनके रचयिता वस्त्र-पात्र आदि के घोर विरोधी प्रतीत होते हैं दूसरी ओर आगम ग्रन्थों को मान्यता देते हैं। निश्चित् ही इनका सम्बन्ध उस परम्परा से है जो श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के भेद के पूर्व की है। प्रायः चन्द्रगुप्त मौर्य (ई.पू. चतुर्थ शताब्दी) का काल श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेद का काल माना जाता है। इन सम्प्रदायों के विभक्त हो जाने के बाद भी पूर्ववर्ती मिली-जुली परम्परा आगे तक प्रचलित रही और इस परंपरा के अन्तर्गत भगवती आराधना एवं इसकी विजयोदया टीका की रचना हुई। इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन ई.पू. चतुर्थ शताब्दी से पूर्ववर्ती सल्लेखना सम्बन्धी जैन अवधारणा पर प्रकाश डालता है। आराधना को परिभाषित करते हुए भगवती आराधना की दूसरी गाथा में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं। आराधना के दो भेद हैं - 1. सम्यक्त्वाराधना और 2. चरित्राराधना। __दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है, किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की आराधना भजनीय है, वह होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान नियम से होता है परन्तु ज्ञान के होने पर सम्यग्दर्शन के होने का नियम नहीं है।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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