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________________ मृत्यु-महोत्सव - जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में 29 में बाधक सभी संसारी चीजों का परिहार करवाते हैं। संयम, स्वाध्याय, साधनापूर्वक निर्विकार रूप से मृत्यु को आलिंगन करने वाले साधक का देवता भी अभिनन्दन करते हैं। __ इस सल्लेखना या मृत्यु-महोत्सव को आज भी जैन समाज में जीवंत रूप में देखा जा सकता है। इसे पूर्ण होने में आठ दिन से एक माह तक का समय लग जाता है। सल्लेखना के इन दिनों में पूरा समाज अभिभूत हो जाता है। देखने वाले अपने को धन्य मानते हैं व प्रेरणा लेते हैं - इस तरह का मरण हम भी वरण करें। वस्तुतः जीवन जीना ही कला नहीं वरन् मृत्यु के क्षणों में विवेकपूर्वक स्वयं को सम्हाले हुए धर्म के साथ मरना उससे भी बड़ी कला है। सल्लेखना में जीवन का मोह, मरण का भय दोनों समाप्त हो जाते हैं। देह मुझे छोड़े इसके पहले मैं स्वयं इसे छोड़ता हूँ। ऐसा साहस, संकल्प सल्लेखनाधारी ही कर सकता है। आत्मघात और सल्लेखना में जमीन-आसमान का अंतर है। आत्महत्या को घोर पाप, महापाप की संज्ञा देता है जैन धर्म / क्योंकि आत्महत्या, क्रोध, मान, माया, आदि लोभ कलुषित वृत्तियों से की जाती है। जबकि “सल्लेखना” इन सभी कषायों से मुक्त होकर निर्मल हृदय से, समतापूर्वक, मृत्यु की सन्निकट स्थिति में की जाती है। आत्मघात से आत्मा भटकती है। समाधिमरण से मुक्ति की प्राप्ति होती है। जैन धर्म में मनीषियों ने अटल सत्य मृत्यु का स्वागत करने हेतु उसे "मृत्यु-महोत्सव” का रूप देकर विश्व के सभी दर्शनों से अलग मृत्यु की अनोखी उपयोगिता सिद्ध की है जो सचमुच अद्वितीय है।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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