SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में मृत्यु विज्ञान संथारा के परिप्रेक्ष्य में - अनेकान्त कुमार जैन सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न धर्म हैं, सम्प्रदाय हैं। इन धर्मों और सम्प्रदायों के मध्य भी विभिन्न प्रकार के मतभेद हैं। जीवन को लेकर मतभेद हो सकते हैं - हमें क्या पालना चाहिए, हमें कैसे रहना चाहिए? हमें ईश्वर मानना चाहिए या नहीं? हमें खुदा की हुकूमत पर विश्वास है कि नहीं? पूजा-पाठ करना चाहिए या नमाज़ पढ़नी चाहिए?,इत्यादि अनेकानेक बातें हमारे जीवन को लेकर मतभेद बनाये हुए हैं। पाश्चात्य दर्शनों व भारतीय दर्शनों में इस बात पर मतभेद रहा है कि आत्मा है अथवा नहीं? यदि है तो उसका स्वरूप क्या है? पुनर्जन्म होता है या नहीं? मनुष्य जन्म से पहले कहाँ था? मृत्यु के बाद स्वर्ग जाता है या जन्नत? मोक्ष होता है अथवा नहीं? इत्यादि अनेक अवधारणायें मतभेदों को लिए हुए सदा से चली आ रही हैं। “जन्म से पहले और मृत्यु के बाद” इस विषय पर तो मतभेद हो सकते हैं क्योंकि यह विषय प्रत्यक्ष नहीं है। यह सारा विषय अनुमान और श्रद्धा का विषय है। किन्तु जन्म होता है और जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है, इस विषय पर दुनिया के किसी भी व्यक्ति को कोई मतभेद नहीं है। अर्थात् मृत्यु की अनादिनिधनता, सार्वभौमिकता, असांप्रदायिकता स्वतःसिद्ध है। जैन धर्म तथा दर्शन में मृत्यु को लेकर परम्परा के अनुरूप अत्यन्त वैज्ञानिक चिन्तन किया गया। जैनाचार्यों ने विचार किया कि यदि मृत्यु होनी ही है तो क्यों न वह सकारात्मक हो? जिस प्रकार हम जीवन में जन्म को नंगल मानते हैं उसी प्रकार हम मरण को भी मंगल मानें। फिर विचार किया गया किस प्रकार के मरण को मंगल मानें? और इसी विचार ने जैन धर्म को, त्याग और संयम के चरमोत्कर्ष स्वरूप “संथारा” को जन्म दिया। मूलाचार नामक प्राकृत, भाषा के एक प्राचीन ग्रन्थ में आचार्य बट्टकेर कहते हैं -
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy