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________________ बौद्ध धर्म मृत्यु की अवधारणा - रामशंकर त्रिपाठी मृत्यु जीवन का अभिन्न अंग है। मृत्यु और जीवन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन नित्य (सर्वदा) परिवर्तनशील है। व्यक्ति की जीवन.धारा नदी की उदक.धारा की भाँति अनादि काल से बहती चली आ रही है। परिवर्तन तभी उत्पन्न हो सकता है, जब पूर्व स्वरूप का त्याग (विनाश) और अपर स्वरूप का उत्पाद हो। जैसे उदक का वर्तमान अंश आगे बढ़ता है, तभी उसके स्थान पर दूसरा अंश आ पाता है और उदक.धारा बन पाती है, उसी तरह जीवन का एक क्षण विनष्ट होता है और दूसरा क्षण उत्पन्न होता है और तभी परिवर्तनशील जीवन.धारा उत्पन्न होती है। यदि विनाश न हो तो जीवन स्थिर, नित्य और कूटस्थ हो जाएगा। तब न उसमें किसी तरह का परिवर्तन सम्भव होगा और न उससे किसी तरह की क्रिया सम्भव होगी, तथा न ही ऐसी स्थिति में किसी तरह का अस्तित्व ही सिद्ध हो सकेगा। अतः नाश जीवन का स्वभाव है। जैसे अग्नि का स्वभाव “जलाना" है, फलतः न तो उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन सम्भव है और न ही कोई अग्नि को जलाने से रोक सकता है तथा न अग्नि को जलाने के लिए किसी हेतु की अपेक्षा होगी, अन्यथा वह अग्नि ही नहीं रहेगी। जीवन जिन कारणों से उत्पन्न होता है, वे कारण नाशवान जीवन को ही उत्पन्न करते हैं। अतः जीवन के उत्पाद के दूसरे क्षण में ही उसका नाश होता जाता है। बौद्ध दृष्टि में सभी वस्तुएं नाश-स्वभाव होती हैं, अतः उत्पाद के दूसरे क्षण में ही उनका नाश हो जाता है। इसीलिए बौद्ध क्षणिकवादी कहलाते हैं। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कन्ध व्यक्तित्व के उपादान हैं। रूपस्कन्ध जड़जातीय है तथा शेष चार स्कन्ध चेतनजातीय हैं, इन्हें "नाम" भी कहते हैं। अतः व्यक्ति नामरूपात्मक होता है। पाँचों स्कन्ध क्षणिक हैं। कर्म और क्लेशों (अविद्या, तृष्णा, आदि) की वजह से ये प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं। इस तरह व्यक्तित्व की धारा निर्वाणपर्यन्त नदी की धारा की भाँति या दीपक की लौ की भाँति सदा प्रवाहमान होती रहती है। निर्वाण प्राप्त होने पर इस धारा का निरोध हो जाता है।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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