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________________ मृत्यु के आनन्ददायी उत्तम स्वरूप विधायक प्रतीक व्यक्तित्व - महात्मा कबीर 193 चुकी थीं। कबीर के साथ एक खास बात यह थी कि उन्होंने उन परम्पराओं को स्वीकार भी किया और उनके भीतरी तल में बैठकर तथा उन पर जमी मैल की बखिया उधेड़कर एक नई परम्परा गढ़ी, जिससे भारतीय चिन्तनधारा में एक युगान्तर उपस्थित हुआ। इतना तो स्पष्ट है कि तत्कालीन सामाजिक विक्षोभ की परिस्थिति अत्यन्त सुगठित इस्लाम धर्म का प्रतिरोध करने की प्रतिरक्षात्मक भावना से उच्च जातियों में पैदा हुई थी। इसी कारण समूचे देश में फैले मत-मतान्तरों को संघबद्ध करने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ लिया था। इसके लिए उस समय प्रचलित ब्रह्मवादी, कर्मकाण्डी, शैव, वैष्णव, शाक्त, स्मार्त्त, आदि मतावलम्बियों ने स्मृति, पुराण, लोकाचार, कुलाचार, आदि अनेक आधारों पर एक सर्वसम्मत आचार-प्रवण धर्म-मत स्थिर करने की चेष्टा की, जो उच्च जाति के हिन्दुओं को ही संघबद्ध कर सकती थी। उसमें तीर्थ, व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, जप, हवनादि क्रियाओं की ही प्रमुखता थी। इन सब कार्यों में अन्त्यजों और निम्न श्रेणी के लोगों को वर्जनशील रखकर उच्च जाति के हिन्दुओं को अधिकाधिक हिन्दू बनाने की चेष्टा निहित थी। इस प्रकार की प्रतिरक्षात्मक संघबद्धता से सामान्य जनता के हित साधन की आशा नहीं की जा सकती थी। महात्मा कबीर विषयक उपर्युक्त आंशिक अनुशीलन जीवन और मृत्यु-संबंधी उनकी अवधारणाओं के वैशिष्ट्य को स्पष्ट नहीं करता। यह ठीक है कि इन बातों का भी उससे परोक्ष संबंध है, किन्तु कबीर की जीवन-यात्रा और मृत्य-विषयक उनके चिन्तन की मौलिकता ही एतत्संबंधी निष्कर्ष का आधार बन सकती है। कबीर के जीवन के संबंध में अब तक प्राप्त छिटपुट सामग्री के आधार पर पर्याप्त विचार हुआ है किन्तु सबके सहारे नहीं कहा जा सकता कि अन्तिम निष्कर्ष सामने आ सका है। जिसने स्याही और कागज़ छुआ तक नहीं उसकी स्वलिखित रचना प्राप्त ही कहाँ होगी कि उससे पूर्ण रूप में प्रामाणिक निष्कर्ष निःसृत हो सके। दूसरी बात यह है कि महात्मा कबीर उन महापुरुषों की परम्परा में ही आते हैं जिनकी रूचि आत्मपरिचय देने में नहीं के बराबर थी, फिर भी उनके भक्तों और शिष्यों द्वारा उनकी कही गई वाणियों की जो प्रस्तुति हुई उनमें जहाँ-तहाँ कुछ निजी बातें उनके जीवन की झलक दे ही जाती हैं। . कबीर के विषय में विचारकों द्वारा जो सामग्री प्रस्तुत की गई है उसमें वैषम्य की ही मात्रा अधिक है। अधिकांश विचारकों ने उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का सूत्र पिरोने वाला समझा है, किसी ने नाथ-मतावलम्बी और किसी-किसी ने तो उन्हें पूरा का पूरा वैष्णव मान लिया है। सच तो यह है कि कबीर जैसे चिन्तनशील मनीषी की फुटकल उक्तियों के आधार पर उनके संबंध में निकाला गया निष्कर्ष युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता। उन्होंने “जाति जुलाहा नाम कबीरा बनि बनि फिरौं उदासी” के द्वारा अपनी निम्न श्रेणी का परिचय अत्यन्त निर्भीक भाव से समाज को दिया और अपने को निरक्षर घोषित कर समाज में हेय माने जाने की बात दृढ़ आत्मविश्वास के साथ स्वीकार कर ली। यह भी बता दिया कि "तनना बुनना तज्या कबीर, रामनाम लिख लिया शरीर” उसकी आन्तरिक चिन्तन-शक्ति और विरल उपलब्धियों
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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