________________ 194 . मृत्यु की दस्तक का वैशिष्ट्य सहज ही स्वीकार किया जाना चाहिए। साथ ही उसके आत्मचिन्तन, . आत्मानुभुति और आत्मचैतन्य को भी उसके व्यक्तित्व के आधारभूत तत्त्व के रूप में मान्य समझना होगा। असल बात यह है कि जीव को जीव इसलिए कहा जाता है कि वह आत्मा के साथसाथ मन और शरीर से भी युक्त है। हमारा जीवन शरीर, मन और आत्मा की क्रियाशीलता पर आधारित है। शरीर से ऊपर उठकर आत्मा तक उसकी पहुँच उसे परम आनन्दानुभूति की कोटि में ला देती है। इस परम फल की प्राप्ति-प्रक्रिया क्रमिक साधना के रूप में स्थिर की गई है। शरीर-साधना के पश्चात् ही मनस्तत्त्व की साधना का स्तर प्राप्त होता है और इन दोनों की उपलब्धि के पश्चात् आत्मचैतन्य का वरदान मिलता है। इसी क्रम को लक्ष्य करके प्रायः सभी धर्मों में शारीरिक और मानसिक पवित्रता के नियमों का विधान किया गया है। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि आत्मचैतन्य की कोटि-प्राप्त महापुरुष आन्तरिक दृष्टि से संयमित और अनुशासित होकर भी सामाजिक और लौकिक रूढ़ियों के शिकंजों में नहीं फँसता क्योंकि पूर्ण आत्मविकास के क्षेत्र की परम आनन्दानुभूति में डूबा वह निर्भयतापूर्वक मनुष्य मात्र के बीच अपार करुणा के बीज बोता विचरण करता रहता है। महात्मा कबीर की सर्वदिशोन्मुखी स्वाधीन प्रवृत्ति हमें इसी कारण असमंजस में डाल देती है और हम उनकी उपलब्धियों के औचित्य-निर्णय में सक्षम नहीं हो पाते हैं। महात्मा कबीर की निम्न उक्ति इस सन्दर्भ में विचारणीय है - जो दरसन देख्या चहिए, तो दरपन मंजत रहिए। जो दरपन लागै काई, तब दरसन किया न जाई / / इन पंक्तियों में संकेतित दर्पण में काई लगने का अर्थ कई विचारकों ने माया लगाया है। किन्तु कबीर का वास्तव में दर्पण से तात्पर्य चैतन्य आत्मा से है और “दरसन देख्या चहिए" का कथन करके उन्होंने परमानन्दानुभूति की ओर संकेत किया है। यों माया अर्थ भी लिया ही जा सकता है किन्तु इससे कबीर के वास्तविक तात्पर्य तक उस अर्थ की पहुँच नहीं हो पाती। उसकी एक सीमा बँध जाती है। सोचने की बात है कि कबीर के व्यक्तित्व में अखण्ड आत्मविश्वास का झलमलाता प्रकाश जो आद्यन्त दृष्टिगोचर होता है, वह कहीं मन्द क्यों नहीं पड़ता। जिसने अपने समूचे युग के पाखण्ड, कुपथगामिता, छल-छद्म, दमन, शोषण, उत्पीड़न, दिशाभ्रम, आदि को एक साथ निर्भयता से ललकारा, उसका अन्तर्मन यदि बलशाली नहीं था तो इतनी सारी विपरीतताओं से वह लोहा कैसे ले सका? जिसने “झूठा रोजा झूठी ईद” कहते समय समकालीन मुसलमान शासक की अपने ऊपर क्रोध की रत्ती भर भी परवाह नहीं की, जंजीर से बँधवाया जाकर गंगा मैया की गोद में डाल दिया गया, वह क्या चैतन्य आत्मा और परमानन्दानुभूति का अधिकारी नहीं था? उस प्रियतम “रघुनाथ” का सच्चा स्नेही भाव भक्ति की परिपक्वता-प्राप्त अखंड आनन्द का क्या वह भोक्ता नहीं था?