________________ जीवन की मृत्यु सहेली है 189 है? हाँ, सभी नहीं रोते। कुछ समुदायों में तो रोने वाले किराये पर बुलाये जाते हैं। शायद उनका विश्वास है कि इससे मरने वाले को सद्गति मिलेगी। ऐसे समुदाय भी हैं जहाँ मरने पर खुशी मनाई जाती है। कबीर भी तो कहते हैं - “दुलहिन गावहु मंगलाचार"। कहते हैं सुकरात ने अपने शिष्यों को कहा था कि पता लगाओ कि ज़हर का प्याला ठीक समय पर मिल तो जायेगा, शिष्यों को आश्चर्य हुआ - “आप क्यों चिन्ता कर रहे हैं? सुकरात ने कहा - पीना मुझे है तो चिन्ता कौन करेगा? उनको जहर पीने की सज़ा दी गई थी। . शिष्यों ने यह भी जानना चाहा कि आपका संस्कार किस प्रकार किया जायेगा? सुकरात को हँसी आ गई। बड़े पते की बात उन्होंने कही - “तो जहर पिलाने वाले हमारे दुश्मन और ज़मीन में गाड़ने वाले दोस्त हो गए। अन्त में उन्होंने एक सटीक उत्तर दिया कि हमको पकड़ पाओगे तभी न गाड़ोगे या. फॅकोगे। मरणोपरान्त उनके शरीर के साथ क्या विधि-विधान किया जाये, इस सम्बन्ध में लोग अपना “विल” लिखकर छोड़ जाते हैं। संत तिरुवल्लुवर ने लिखा था - "मरने के बाद मेरा शरीर जंगल में छोड़ दिया जाये ताकि जंगल के जानवर उसे खा सकें"। एक धर्म ऐसा भी है कि मृत शरीर को ऊँचे टावर पर रख देते हैं। मांसभक्षी पक्षी उसे खा जाते हैं। कुछ लोग अपने अंगों का दान-पत्र लिख देते हैं। मरने पर उनकी आँखें किसी को लगा दी जायें। उनका शरीर मेडिकल कॉलेज को दे दिया जाये पढ़ने वाले छात्रों के लिए। कहने का तात्पर्य यह है कि “हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता" की तरह मृतक संस्कार के इतने विधि-विधान हैं जिनका वर्णन आसान नहीं है। पुनर्जन्म एक बहुत बड़ा आश्वासन है मरने वाले के लिए। वैसे मोक्ष चाहने वालों की भी कमी नहीं है। मनु महाराज इस राय के हैं कि “जीवन का अभिनन्दन नहीं, मृत्यु की वासना नहीं।" वास्तव में जीवन की चौहद्दी बनती है जन्म और मृत्यु से, फिर तो दोनों के प्रति एक समान भावं होना चाहिए। सामान्यतः ऐसा होता नहीं। जन्म की खुशियाँ मनाई जाती हैं और मृत्यु से पलायन करते हैं। यक्ष के एक प्रश्न का उत्तर युधिष्ठिर ने यही तो दिया था कि हम रोज़ जनाज़ों की कतारें देख रहे हैं फिर भी समझते हैं कि हमको नहीं मरना है। यहाँ तक कि “राम नाम सत्य है" मंत्र को हमने श्मशान के साथ स्थायी रूप से जोड़ दिया है। किसी के घर में बैठकर इस मंत्र का उच्चारण करने वाले की खैर नहीं है, तभी शायद कबीर को कहना पड़ा कि “आशा तृष्णा ना मरी, मर-मर गया शरीर" | कहते हैं कि रात-दिन, सुख-दुःख की तरह जन्म और मृत्यु का भी चक्कर चलता रहता है। लेकिन यह बात हमको पचती कहाँ है? अपने जीने के लिए हज़ारों पशु-पक्षियों का वध सहज रूप से करते रहते हैं। अपनी मौत नहीं दिखाई देती। मौत से आँख बचाने, भागने का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि मौत को जो पसन्द है वह हमको पसन्द नहीं है। सच्चा