________________ 174 मृत्यु की दस्तक तत्त्व निहित होते थे किन्तु वर्तमान समय में आतंकवाद से जुड़ा आतंकवादी यदि किसी व्यक्ति या समूह की हत्या करता है तो उसके पीछे उस व्यक्ति या समूह से उसके मान्य हितों का कहीं भी टकराव नहीं पाया जाता है। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि एक आतंकवादी समूह का भी अपना कोई-न-कोई लक्ष्य, उद्देश्य या आदर्श होता है जो धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, जातीय कुछ भी हो सकता है, किन्तु उसके द्वारा जो व्यवहार किया जाता है उससे उसके किस लक्ष्य या उद्देश्य की पूर्ति हो रही है यह एक विचारणीय विषय है। लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि एक आतंकवादी जिस प्रकार का व्यवहार करता है ऐसा व्यवहार वही कर सकता है जो जीवित तो है किन्तु केवल जैविकीय दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से वह पूर्णरूपेण मृत हो चुका हो। सामाजिक मृत्यु से सम्बन्धित अपनी उक्त स्थापना के समर्थन के लिये मैं उन सामाजिक विचारकों के विचारों को रखना चाहती हूँ जिन्होंने आत्महत्या एवं विचलनकारी व्यवहारों की न केवल विस्तृत व्याख्या की है बल्कि उन सामाजिक कारकों एवं परिस्थितियों का भी उल्लेख किया है जिनसे प्रेरित होकर व्यक्ति आत्महत्या करता है या विचलनकारी व्यवहारों को जन्म देता है। इस सम्बन्ध में मैं सबसे पहले दुर्थीम का नाम लेना चाहूँगी जिन्होंने सबसे पहले आत्महत्या के मूल में निहित वैयक्तिक कारकों का खण्डन कर इस बात की स्थापना की है कि आत्महत्या विशुद्ध रूप से एक सामाजिक तथ्य या घटना है और इसका कारण सामाजिक संरचना में निहित है। दुर्थीम के आत्महत्या-सम्बन्धी विश्लेषण एवं आत्महत्या-सम्बन्धी आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्महत्या से पूर्व व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में अपने को समाज से पूर्ण रूप से त्यक्त हुआ पाता है और उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। ये स्थितियाँ उसकी सामाजिक मृत्यु की द्योतक हैं। इसी प्रकार मर्टन, पार्सन्स, मैकाइवर, आदि सामाजिक विचारकों ने भी व्यक्ति के विचलनकारी व्यवहारों या नियमहीनता के कारकों की जो व्याख्या प्रस्तुत की है उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि इस स्थिति में व्यक्ति और समाज के बीच जो समन्वयात्मक प्रकार्यात्मक संबंध होना चाहिए वह नहीं रह जाता और यह स्थिति भी उसकी सामाजिक मृत्यु की द्योतक मानी जा सकती है। सामाजिक मृत्यु से संबंधित उक्त विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति की सामाजिक मृत्यु के लिये कहीं-न-कहीं सामाजिक संरचना, व्यवस्था, आदर्श, मूल्य, नियम, मान्यतायें, आदि उत्तरदायी होती हैं। यदि भारतीय सामाजिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो कुछ उदाहरण सामाजिक मृत्यु की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर वर्ग विशेष की विधवाओं को यदि देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि रूढ़ियों और परम्पराओं से बँधी ये विधवायें केवल जैविकीय दृष्टि से ही जीवित हैं जबकि सामाजिक दृष्टि से इनकी मृत्यु हो चुकी होती है। शुभ अवसरों