SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मृत्यु की अवधारणा : समाज-शास्त्र के परिप्रेक्ष्य में 173 उन परिस्थितियों, कारकों तथा आधारों की व्याख्या एवं उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है जिनके आधार पर सामाजिक मृत्यु की अवधारणा को स्थापित किया जा सकता है और एक नये दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या की जा सकती है। समाज-शास्त्र में, गंभीरतापूर्वक दो महत्त्वपूर्ण विषयों को विश्लेषित किया जाता है - पहला आत्महत्या और दूसरा विचलनकारी व्यवहार या विसंगति / आधुनिक समाज के सन्दर्भ में वर्तमान समाजशास्त्रियों के समक्ष आतंकवाद भी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या के रूप में उपस्थित हुआ है। जहाँ तक आत्महत्या एवं विचलन के कारणों का सम्बन्ध है उसके बारे में कहा जा सकता है कि कहीं-न-कहीं वे कारण सर्वप्रथम व्यक्ति की सामाजिक मृत्यु के लिये उत्तरदायी हैं। इसी प्रकार यदि आतंकवाद के कारणों पर भी गंभीरतापूर्वक विचार किया जाये तो यहाँ भी यही निष्कर्ष निकलता है कि एक आतंकवादी व्यक्ति की पहले ही सामाजिक मृत्यु हो चुकी होती है। इन तीनों प्रकार की सामाजिक मृत्यु में भी अन्तर है। जैसे आत्महत्या के पूर्व सामाजिक दृष्टि से मृत व्यक्ति अपने जीवन को निरर्थक समझकर जीवन का अंत कर देता है जिसे दुर्थीम ने अहंवादी आत्महत्या की संज्ञा दी है। इसी प्रकार विचलनकारी व्यवहार वाले व्यक्तियों को तीन वर्गों में रखकर उनकी सामाजिक मृत्यु की व्याख्या की जा सकती है। प्रथम वर्ग में उन व्यक्तियों को रखा जा सकता है जो हताशनिराश एवं कुंठाग्रस्त होकर व्यवहार करते हैं तथा एक सामाजिक प्राणी के रूप में उनका जीवन निरर्थक हो चुका रहता है क्योंकि वे समाज के प्रति अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं समझते। दूसरी श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जो समाज स्वीकृत लक्ष्यों एवं साधनों के स्थान पर अपने द्वारा बनाये लक्ष्यों एवं साधनों को अपनाकर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को समाज अपने से अलग एवं बहिष्कृत समझता है और सामाजिक दृष्टि से मृत समझता है क्योंकि ऐसे लोग समाज में विघटनकारी स्थिति को जन्म देने का कार्य करते हैं। तीसरी श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जो सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था से संबंधित आदर्शों, लक्ष्यों, मूल्यों, मान्यताओं, नियमों, आदि को निरर्थक मानते हैं और अपने निजी स्वार्थों के आधार पर मनमानी व्यवस्था लाना चाहते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टि में सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था इनके सन्दर्भ में मृत होती है और समाज की दृष्टि में ये मृत होते हैं। उक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि आत्महत्या एवं विचलनकारी व्यवहार करने वाले व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से पहले ही मृत हो चुके रहते हैं इसीलिए वे ऐसा व्यवहार करते हैं जो सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में न तो संगत होता है और न ही सार्थक / जहाँ तक तीसरे विषय आतंकवाद की समस्या का प्रश्न है वहाँ इसके कारणों पर गंभीरतापूर्वक एवं व्यापक विचार करने की आवश्यकता है। अब तक ऐसा पाया जाता रहा है कि यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति समूह या व्यक्ति की हत्या करता था तो उसके पीछे उस व्यक्ति या समूह के द्वारा उसके निजी स्वार्थों की पूर्ति में बाधा उत्पन्न करने के
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy