________________ 172 मृत्यु की दस्तक व्यवहार के प्रतिमान, रुचियों, अभिवृत्तियों, क्षमताओं एवं योग्यताओं का एक विशिष्ट संगठन है। . उक्त व्याख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की संरचना मुख्य रूप में तीन उपसंरचनाओं - दैहिक संरचना, मनोवैज्ञानिक संरचना एवं सामाजिक संरचना में विभक्त है। दैहिक संरचना के अन्तर्गत स्नायु मंडल, इन्द्रियाँ, प्राण एवं इनका पारस्परिक सम्बन्ध सम्मिलित है। मनोवैज्ञानिक संरचना में मूल प्रवृत्तियाँ, प्रेरणा, उद्देश्य, प्रत्यक्षीकरण, सीखना एवं चेतना का पारस्परिक सम्बन्ध सन्निहित है। सामाजिक संरचना में, जो व्यक्तित्व की सबसे महत्त्वपूर्ण उपसंरचना है, सभी सामाजिक संस्थाओं (प्राथमिक और द्वितीयक) की भूमिकायें सम्मिलित हैं। कार्डिनर ने भी इन दो प्रकार की संरचनाओं और व्यक्तित्व के बीच कार्यकारी सम्बन्ध की विस्तृत व्याख्या की है। मानव व्यक्तित्व की इन तीन उप-संरचनाओं के आधार पर मृत्यु की अवधारणा की भी तीन दृष्टिकोणों से व्याख्या की जा सकती है। सामान्यतया जैविकीय दृष्टि से ही मृत्यु को मृत्यु समझा जाता है। इसमें दैहिक संरचना में उन तत्त्वों का नाश हो जाता है जो देह और प्राण में प्रकार्यात्मक समन्वय को बनाये रखते हैं। यदि विचार किया जाये तो मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक संरचना की समन्वयात्मक तत्त्वों का भी उसी प्रकार नाश होता है किन्तु उसे मृत्यु की संज्ञा नहीं दी जाती है। जबकि मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से यह भी मृत्यु है। जिस प्रकार जैविकीय मृत्यु की व्याख्या व्यक्ति के जैविकीय परिवेश में की जाती है उसी प्रकार व्यक्ति की सामाजिक मृत्यु की व्याख्या भी उसके सामाजिक परिवेश के आधार पर की जानी चाहिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति का जैविकीय दृष्टि से अस्तित्व रहने पर भी यदि उसका सामाजिक परिवेश विघटित हो जाता है तो वह सामाजिक दृष्टि से मृत हो जाता है किन्तु यदि व्यक्ति जैविकीय दृष्टि से मृत है और उसका सामाजिक परिवेश गतिशील है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से जीवित माना जा सकता है। जैसे वे संत, महात्मा या महापुरुष, जो जैविकीय दृष्टि से जीवित तो नहीं हैं किन्तु अपने विचारों, सिद्धान्तों, आदर्शों, आदि के द्वारा व्यक्ति एवं समाज का मार्ग-निर्देशन करते रहते हैं तथा मानव जाति एवं समाज के प्रेरणा-स्रोत होते हैं, सामाजिक दृष्टि से जीवित होते हैं। किन्तु वे लोग जो जैविकीय दृष्टि से केवल निजी हितों के लिये ही जीवित हैं, वे वास्तव में सामाजिक दृष्टि से मृत हैं। लेकिन प्रत्येक समाज में अधिकांश व्यक्तियों के जैविकीय एवं सामाजिक जीवन में इतना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है कि उनमें भेद करना कठिन होता है। अतः ऐसे व्यक्तियों की जैविकीय एवं सामाजिक मृत्यु एक साथ मानी जा सकती है। ____ यहाँ जिस सामाजिक मृत्यु के सम्बन्ध में विवेचन करने का प्रयास किया गया है, उसके सम्बन्ध में समाज-शास्त्र में कहीं कोई स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए हमें