________________ मृत्यु की अवधारणा समाज-शास्त्र के परिप्रेक्ष्य में - कुसुम गिरि जिस लोक में हम रहते हैं उसे मृत्युलोक कहा जाता है। इस लोक में जो भी प्राणी जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है, अतः यहाँ मृत्यु की अवधारणा सर्वानुभव, सर्वकालिक एवं सार्वभौम सिद्ध है। यह अवधारणा इतनी सहज और सरल लगती है कि इसके विश्लेषण और इस पर विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती। दिन-प्रतिदिन के जीवन में विभिन्न प्राणियों को अथवा मनुष्य को मरते देखकर न तो किसी को आश्चर्य होता है. और न ही उस पर विचार किया जाता है अपितु सहज रूप से मान लिया जाता है कि यह तो होना ही था। सम्भवतः इसीलिए किसी भी शास्त्र में मृत्यु की अवधारणा पर गंभीरता एवं विस्तार के साथ कोई विचार उपलब्ध नहीं होता। चिकित्सा-शास्त्र एवं जीव-शास्त्र मृत्यु की अवधारणा को मनोदैहिक आधारों पर प्रस्तुत करते हैं। दर्शन-शास्त्रं आध्यात्मिक दृष्टि से मृत्यु की अवधारणा के विवेचन का प्रयास करता है, किन्तु समाज-शास्त्र में मृत्यु की अवधारणा का न तो कहीं स्पष्ट उल्लेख है और न ही कहीं इस पर गंभीरता से विचार किया गया है। समाज-शास्त्र का सम्बन्ध मानव एवं मानव समाज से है। इसलिए समाजशास्त्रीय दृष्टि से मृत्यु की अवधारणा का प्रस्तुत विवेचन मानव की सामाजिक मृत्यु तक ही सीमित अनुभव और विचार के आधार पर इतना तो सर्वमान्य लगता है कि व्यक्तित्व की संरचना के तत्त्वों का विघटन तथा उसके सारतत्त्व का विनाश ही मृत्यु है, किन्तु व्यक्तित्व की संरचना में निहित तत्त्वों के स्वरूप के विषय में मतभेद होना स्वाभाविक है। किम्बल यंग के अनुसार व्यक्तित्व विचारों, अभिवृत्तियों, लक्षणों, मूल्यों एवं आदतों का एक संगठित स्वरूप है, तो डीवर के अनुसार व्यक्तित्व व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक गुणों का एक समन्वित एवं गतिशील संगठन है। इसी प्रकार मनु के अनुसार व्यक्तित्व की संरचना