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________________ 170 .. मृत्यु की दस्तक ज्ञान के लिये, या पूरी मानवता के लिये किये गये कर्म से व्यक्ति की कीर्ति होती है और इज्जत या मान भी मिलता है। संस्कृत की एक उक्ति है; “कीर्तिर्यस्य स जीवति”; अर्थात् जो कीर्ति अर्जित करता है वही जीता है। उसके शरीर के अन्त होने पर भी वह जीवित रहता है तब तक जब तक कि उसकी कीर्ति रहती है। उदाहरणस्वरूप किसी के नाम से जुड़ी अगर कोई संस्था है, या उसके द्वारा खुदवाया हुआ गाँव में तालाब, कुआँ है, अथवा उसके द्वारा रचित कुछ पुस्तकें हैं, तो उसके शरीर के अन्त होने पर भी समाज में, लोगों में, कई पुश्तों तक उसके नाम को स्मरण किया जाता है उसकी कीर्ति के साथ। और कुछ नहीं तो कम-से-कम उसकी सन्तानों की पहचान के लिये तो एक दो पुश्तों तक उसके मरने पर भी उसका नाम लोग भुलाते नहीं। नाम की महिमा वैसे तो हर संस्कृति में है, लेकिन हिन्दू समाज में तो बहुत ज़्यादा है। यहाँ नाम-जप और नाम-कीर्तन की बहुत पुरानी परम्परा है। नाम का अस्तित्व अपने आप में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पुरुषार्थ प्राप्ति से इस तरह व्यक्ति अपने शरीर के नाश होने पर भी मरता नहीं। प्रारम्भ में जीवन और मृत्यु के द्वन्द्व की बात कही गई थी। इस द्वन्द्व का समाधान भारतीय परंपरा में प्रायः इस तरह किया गया है कि व्यक्ति की मृत्यु उसकी देह के अन्त से नहीं होती। देह का अन्त होना व्यक्ति के अस्तित्व के एक दृष्टिगत आयाम का अन्त है। उसके अस्तित्व के दूसरे आयाम हैं उसकी कीर्ति जिसकी आयु उसकी देह की आयु से बहुत ज़्यादा होती है और वह भी दृष्टिगत है। ये दोनों आयाम काल के घेरे में हैं लेकिन दोनों के काल में बहुत बड़ा अन्तर है। व्यक्ति के अस्तित्व का तीसरा आयाम है उसकी आत्मा जो अमर-अजर है। इस तरह मृत्यु प्रसंग काल की गति अविच्छिन्न है। व्यक्ति के अस्तित्व के एक आयाम का काल निश्चित् है, दूसरे आयाम का काल• अनिश्चित् है और तीसरा आयाम काल के घेरे से मुक्त है। __ मृत्यु की घटना सबसे ज़्यादा प्रभावकारी होती है। प्रकृति की ताकतों और वातावरण के प्रकोप के सामने मनुष्य अभी भी अपने को कमज़ोर पाता है। ऐसी स्थिति में मृत्यु जैसे घटना के घटित होने से मनुष्य अपने अस्तित्व को अर्थहीन समझने लगता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर के अनुसार ऐसी स्थिति में जीवन की अर्थहीनता बहुत गम्भीर रूप से उत्पन्न हो जाती है। जिसके चलते कोई व्यक्ति इतना निराश या हताश हो सकता है कि उसे जीवन जीने में बड़ी दुविधा या कठिनाई का सामना करना पड़े और वह नहीं कर सके। समाज इस तरह छिन्न-भिन्न हो सकता है। धर्म और धार्मिक परम्पराओं में इस संकट से त्राण पाने के लिये मृत्यु जैसी घटना की व्याख्या इस तरह से प्रस्तुत की गई है कि उपर्युक्त जीवन की अर्थहीनता का संकट वैचारिक स्तर पर सुलझ सके, व्यक्ति हताश न हो जाये और समाज बिखर न सके। 11. ओडिया, टॉमस एफ., द सोशियोलोजी ऑफ रिलीजियन, प्रेन्टिश-हॉल ऑफ इंडिया, नई दिल्ली, पृ. 5-61
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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