________________ भारतीय परम्परा में मृत्यु प्रसंग विचार 169 सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण से पुरुषार्थ की विवेचना की, जो प्रस्तुत विषय (मृत्यु) के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है। विद्यापति का इस प्रसंग में चिन्तन प्रारम्भ होता है उनके द्वारा उठाये गये एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न से। अपनी पुस्तक कीर्तिलता में वे प्रश्न करते हैं कि किसी व्यक्ति के अस्तित्व का सार क्या है? और, इसका उत्तर देते हैं कि व्यक्ति के अस्तित्व का सार उसका मान यानि अन्य लोगों द्वारा स्वीकृत उसकी इज्जत है।' पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस प्रसंग पर विचार किया है। मार्टिन ब्यूबर के अनुसार व्यक्ति के अस्तित्व का सार समाज में इस बात पर निर्भर करता है कि उसके अस्तित्व को दूसरे व्यक्तियों द्वारा वह जिस स्थिति में है और भविष्य में वह जिस स्थिति में हो सकता है स्वीकार किया जाये। व्यक्ति के अस्तित्व के प्रसंग पर विद्यापति पाश्चात्य धारणा से भिन्न तो नहीं लेकिन उससे कुछ ज्यादा कहते हैं। वे मानते हैं कि हर व्यक्ति का अस्तित्व समाज में उसके मान या इज्जत रहने से है। यह मान वह खुद अख्तियार करता है। अगर उसमें पौरुष है, और पौरुष हासिल करने के लिये आवश्यक है कि उसमें शौर्य, विवेक, उत्साह, प्रतिभा, मेधा एवं विद्या हो तथा वह पुरुषार्थ प्राप्त करे। पुरुषार्थ में वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों की व्याख्या करते हैं जिसमें प्रथम तीन तो समाज में स्थित व्यक्तियों के लिये हैं, मगर मोक्ष की बात उनके लिये है जो समाज से या संसार से अलग हो जाते हैं। मृत्यु प्रसंग में व्यक्ति के अस्तित्व की विवेचना के लिये धर्म, अर्थ और काम की विवेचना ही महत्त्वपूर्ण है। धर्म की व्याख्या करते हुए विद्यापति कहते हैं कि कुलाचार और साधारण धर्म का पालन ही धर्म है। साधारण धर्म के अन्तर्गत अपने को पर-स्त्री और पर द्रव्य से दूर रखना तथा पर-हिंसा नहीं करना है। अर्थजनित पुरुषार्थ वह है जिसमें व्यक्ति उचित तरीके से अर्थोपार्जन करे और उसका उपयोग अपने उपभोग के लिये तथा साथ ही दूसरे लोगों यानी सामाजिक स्वार्थ के लिये भी करे। विद्यापति “इष्टापूर्त" शब्द का प्रयोग इस सन्दर्भ में करते हैं, जिसका अर्थ होता है सामाजिक उपयोग के लिये कुआँ, तालाब, इत्यादि निर्माण करवाना.। काम पुरुषार्थ के प्रसंग में इनका मानना है कि पुरुष और स्त्री के बीच काम के सम्बन्ध का आधार एक-दूसरे के प्रति स्नेह, विश्वास, इज्ज़त की भावना तथा सुख-दुःख में साथ-साथ रहना है।1० इन सारे पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिये अपने से अतिरिक्त दूसरे व्यक्तियों या पूरे समाज के प्रति कर्त्तव्य पालन आवश्यक माना गया है। समाज के लिये, 7. देखिये वासुदेव शरण अग्रवाल, सं. महाकवि विद्यापतिकृत कीर्तिलता, साहित्य सदन, झाँसी, 1962, पृ. 15-161 8. ब्यूबर, मार्टिन, द नॉलेज ऑफ मैन, जॉर्ज एलेन एण्ड उनविन, लंदन, 1965, पृ. 68 / . . 9. . देखिये, झा हेतुकर, मैन इन इन्डियन ट्रेडिशन - विद्यापतिज डिसकोर्स ऑन पुरुष, आर्यन बुक्स इन्टरनेशनल, नई दिल्ली, 2002, पृ. 66 | 10. वही, पृ. 73-1011