________________ मृत्यु - आध्यात्मिक दृष्टिकोण 157 हूँ कि कब यह शरीर छूटेगा और देहापाधि के दुःखों से भी निवृत्त होकर पूर्ण परम शक्ति में स्थित हो जाऊंगा। वे कहते हैं - मरते-मरते जग मुवा, मुये न जाना कोय / ऐसा होय के ना मुवा, जो बहुरि न मरना होय / / मरते-मरते जग मुवा, बहुरि न किया विचार / एक सयानी आपनी, परवस मुवा संसार।। ___ - बीजक, साखी, 324/325 कबीर स्पष्ट रूप से यह भी कहते हैं - जेही मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द / कब मरिहौं कब पाइयौ, पूरन परमानन्द / / ___ - साखी ग्रन्थ इस सन्दर्भ में सुकरात की मृत्यु का उदाहरण अवर्णनीय है - सुकरात को जहर दिये जाने के समय उनके सभी सगे-सम्बन्धी वहाँ आँसू बहा रहे थे जबकि कटुतारहित उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता, प्रफुल्लता परिलक्षित हो रही थी। ऐसा लगता था कि मानो अंतस् में किसी प्रियजन से मिलने की उमंगें उठ रही हों। पास में खड़े शिष्यों ने जब इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा - “मैं मृत्यु से साक्षात्कार करना चाहता हूँ और यह भी जानना चाहता हूँ कि मृत्यु के बाद हमारा अस्तित्व रहता है या नहीं। मृत्यु जीवन का अन्त है अथवा एक सामान्य जीवन-चक्र / " और सुकरात को निर्धारित समय पर विष देते समय सभी दर्शकों की आँखें सजल हो उठीं। उन्होंने उपस्थित जनसमूह को सम्बोधित करते हुए कहा - “मृत्यु जीवन का अन्त नहीं, एक अविरल प्रवाह है। जीवन की सत्ता मरणोपरान्त भी बनी रहती है।” निष्कर्ष उपरोक्त विचारों के निष्कर्ष के रूप में यह प्रश्न प्रमुख एवं गम्भीर रूप से सामने आता है कि आखिर मनुष्य को कैसे जीवन-यापन करना चाहिये, जिससे अन्तिम क्षण में वह निर्भय मृत्यु की गोद में समा सके। एक साधारण सांसारिक प्राणी, क्या आसक्तहीन और निर्विकारकर्तव्ययुक्त होकर अपना पूरा जीवन व्यतीत कर सकता है? यह एक कटु सत्य है कि जीवन के हर पल, हर क्षण में वासनाएँ, तृष्णा और स्वार्थ अनेक रूपों में साथी बनकर अपनी बाँहें फैलाये हमें प्रलोभन देकर प्रलुब्ध कर रही हैं जिसके कारण मनुष्य की जन्म से मृत्यु तक की यात्रा दुःखी और भयंकर कष्टों के द्वारा जर्जरयित और उत्पीड़ित है। वह मृत्यु के क्षण तक प्रभावी रहता है। अतः प्राणी स्वाभाविक रूप से मृत्यु को ग्रहण नहीं कर पाता। आखिर प्राणी कैसे और किस रूप में जीवन व्यतीत करे जिससे सारे प्रपंचों से छुटकारा मिल सके।