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________________ 156. मृत्यु की दस्तक आत्म परिबोध नहीं होता, और न आत्मविवेचन ही। जिसको यह भी भान नहीं है कि मैं कौन हूँ और मेरी कितनी शक्ति है, वह व्यक्ति दूसरे का विकास तो क्या, स्वयं अपना विकास भी नहीं कर सकता। वह तो केवल शरीर, स्वार्थ, इन्द्रियों और मन के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित हो जाता है, जिसके कारण उसका जीवन असत्य कार्यों में व्यतीत होता है, वह मनुष्य के शरीर में पशु स्वभाव होने के कारण लोगों के दुःखों और कष्टों का कारण बनता है। इसलिये उसे "आत्मबोध" होता ही नहीं। स्वामी विवेकानन्द जी कहा करते थे कि जीवन का पहला और स्पष्ट लक्षण है विस्तार / यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुम्हें फैलना होगा। जिस समय तुम जीवन का विस्तार बन्द कर दोगे, उसी क्षण जान लेना कि मृत्यु ने तुम्हें घेर लिया है। ___आत्म-विस्तार का अर्थ संतति की संख्या में वृद्धि करना नहीं है बल्कि समस्त प्राणीजगत् के प्रति आत्मीय भाव स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील बनना है। आत्मीय भाव का व्यावहारिक पक्ष है उपकार अथवा सेवाभाव / आत्मीय भाव के विकास के अनुपात में ही व्यक्ति को अमरत्व प्राप्त होता है। प्राणी.जगत् के साथ एकाकार होने की स्थिति में मनुष्य “स्व” और “पर” का भेद भूलकर समष्टि के साथ एकरस होकर मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण प्राप्त कर लेता है। मरने की कला मृत्यु का ध्यान आध्यात्मिक उन्नति के लिये मुख्य साधनाओं में से एक है। मृत्यु का ध्यान आते ही सारा अहंकार चूर्ण हो जाता है। मृत्यु से जुड़े वस्तुतः सारे मनोविकार स्वप्नवत हैं और जीव का सम्बन्ध किसी से भी नहीं है। भावपूर्वक मृत्यु का स्वरूप होते ही सारे मनोविकार विलुप्त हो जाते हैं। मृत्यु के उपरान्त अपने माने हुए सब कुछ का अन्त निश्चित् है क्योंकि मृत्यु ही अटल सत्य है। पहले ही कहा गया है कि जीवन के साथ मृत्यु का गहरा संबंध है। जो जीना जानता है, वह मरना भी जानता है। अनासक्त या आसक्ति रहित होकर जीना “जीने की कला" है। इस सन्दर्भ में कबीरदास जी कहते हैं - कहहिं कबीर ते उबरे, जाहिं न मोह समाय / / उनके अनुसार संसार के सब लोग एक-न-एक दिन मरते ही हैं, परन्तु वे मरने की कला नहीं जानते। सब तरह से अनासक्त होकर नहीं मरते, जिससे कि पुनः जन्म-मरण के चक्र में न आना पड़े। जगत् के सब लोग तो मरते ही हैं परन्तु वे सत्यासत्य का विवेक नहीं करते। इस संसार में लोग दो मनःस्थितियों में हैं - एक तो मरते हैं अनासक्त होकर, स्वयं विवेक में स्थित होकर शरीर त्यागते हैं वे “जीवमुक्त होकर मरते हैं, और दूसरे वे हैं - जो विषयों, वासनाओं में आबद्ध होकर मरते हैं, जिसके मरने से जगत् के लोग डरते हैं। किन्तु कबीर कहते हैं - मृत्यु को याद करके मेरे मन में आनन्द उत्पन्न होता है और सोचता
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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