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________________ मृत्यु - आध्यात्मिक दृष्टिकोण 155 जीवन के इस सत्य को लक्ष्य करके डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने एक स्थान पर लिखा है - आदि से अंत तक हमारा जीवन एक प्रकार की मृत्यु है, जिसका अर्थ है अधिक विशाल जीवन, हमारे शरीर में प्रति क्षण कोशिकाएँ बनती व टूटती रहती हैं। इसी प्रक्रिया में जब नयी कोशिका का बनना बंद हो जाता है तब स्थूल शरीर के असमान को लोक भाषा में मृत्यु कहा जाता है। योगी श्री अरविन्द ने अपने महान् और अमरकृति सावित्री में सांकेतिक रूप में मृत्यु का जीवन्त चित्रण किया है - मृत्यु संग एकाकी निकट विनाश छोड़के, अप्रतिम महिमा उसकी अंतिम रौद्र दशा में, करना होगा पार उसे ही निपट अकेले। काल-परिधि में भीषण जोखिम भरे सेतु को और पहुँचाना शीर्ष-बिन्दु पर जगत नियति के, जहाँ मनुज हित सब जीता या हारा जाये। क्या मनुष्य प्रायः मृत समान है? यह आवश्यक नहीं है कि मृत का आशय सिर्फ शव से हो। जीवित मनुष्य से अपेक्षित व्यवहार के अभाव में हम उन्हें मृत समान मान लेते हैं। जो मनुष्य समाज के काम नहीं आता, और अपने में ही केन्द्रित रहता है, वह मृत्यु की गोद में जीता है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन-संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति तो अन्य प्राणी भी कर लेते हैं, परन्तु मनुष्य इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त भी “कुछ करता है" और वह “कुछ ही” उसके जीवन का सब कुछ है, उसकी पूँजी है। मनुष्य का असली स्वरूप उसका “मनुष्यत्व" है। धर्म वही है जिससे अपना तथा दूसरों का परिणाम में कल्याण हो। इस प्रकार के धर्म का आचरण ही मनुष्य-शरीर एवं जीवन की सार्थकता है। मनुष्य को कर्म करने का अधिकार प्राप्त है, इसलिए मनुष्य केवल “भोगयोनि” नहीं है, बल्कि “कर्मयोनि” है। वह अपने कर्मों के द्वारा अपना भविष्य दुःखमय बना सकता है और सुखमय भी। इस सिद्धान्त को समझकर जो मनुष्य कर्माधिकार का सदुपयोग करता है वही बुद्धिमान है और उसका जीवन-मृत्यु दोनों ही सफल हैं। शास्त्रकारों ने मनुष्य मात्र के जन्म को पुण्य का फल बतलाया है और जब उसके जीवन में मिथ्याचार, पापाचार, दुराचार और सम्पूर्ण वासनाओं की छाया छायी रहती है तो . उसका जीवन कैसे शान्त और सुखी रह सकता है? जब जीवन इतना अशांतिदायक है तो मृत्यु कष्टदायक होगी ही। वह तो जीवित अवस्था में भी मृत प्रायः ही है। क्योंकि उसमें
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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