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________________ 154 . मृत्यु की दस्तक जायेगा। विपुल वैभव, ऐश्वर्य, माता-पिता, कुटुम्ब, मित्र, स्वजन और प्रियजन की लाख कोशिश के बावजूद अन्तिम शय्या मृत्यु की गोद में ही होगी। उसे कोई भी टाल नहीं सकता। इस मृत्यु-चिन्ता से कई बड़े एवं महान् सन्तों का आविर्भाव हुआ। इसी मृत्यु-चिन्ता से ही वैराग्य प्राप्त कर सिद्धार्थ को "बुद्धत्व लाभ हुआ। इस मृत्यु-चिन्ता से ही शंकर बाल्यकाल से ही संन्यासी हुए और इस मृत्यु की भावना से ही 1896 ई. में रमण महर्षि सत्रह साल में ही महान् सन्त के रूप में जाने गये। - इस सन्दर्भ में तत्त्वदर्शी योगियों का मत है कि साधारणतः मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य को बेचैनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है क्योंकि सब नाड़ियों में से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है। लेकिन पुराने समय के अभ्यास के कारण वह फिर से नाड़ियों में खिसक जाता है, जिससे एक प्रकार का आघात लगता है और यही पीड़ा का कारण है। रोग, आघात या अन्य जिस भी कारण से मृत्यु हो रही है तो उससे भी कष्ट होता है। मृत्यु से पूर्व प्राणी अवश्य ही कष्ट पाता है, चाहे वह जुबान से उसे प्रकट कर सके या न कर सके। क्योंकि रोग या अन्य किन्हीं कारणों से शरीर और जीव के बन्धन टूटने आरम्भ हो जाते हैं। लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिल्कुल पास आ जाता है तो एक प्रकार की मूर्छा आ जाती है और शारीरिक शिथिलता और अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाता है। जब मनुष्य मरने वाला होता है तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियाँ एकत्रित होकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकल जाती हैं। अक्सर ऊर्ध्व रन्ध्रों से प्राण निकलते हैं। जैसे - मुख, आँख, कान, नाक प्रमुख मार्ग हैं। योगी केवल ब्रह्मरन्ध्र से प्राण त्याग करता है। कबीर कहते हैं - दस द्वारे का पींजरा, ताके पंछी पौन। रहबे को अचरज अहै, जात अचम्भौ कौन।। - बीजक, साखी यह शरीर रूपी पिंजड़ा, जिसमें (आंखें, नाक, कान, आदि) दस दरवाज़े हर समय खुले हों और उसमें प्राणरूपी पंछी रहता हो, तो उसका उसमें टिके रहना ही आश्चर्यजनक विषय है, उड़ जाने में नहीं। शरीर से प्राण निकल जाने के बाद एक विचित्र अवस्था आ जाती है। जैसेकि घोर परिश्रम से तथा थका हुआ प्राणी कोमल शय्या प्राप्त करते ही सो जाता है, उसी प्रकार मृत आत्मा का जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिये एक निद्रा की आवश्यकता होती है। इस नींद से जीव को बड़ी ही शान्ति मिलती है। मरते ही नींद नहीं आ जाती है वरन् इसमें कुछ देर अवश्य लगती है। कारण यह माना जाता है कि प्राणान्त के बाद कुछ समय तक जीवन की वासनाएँ प्रौढ़ रहती हैं और धीरे.धीरे ही निर्बल पड़ती हैं।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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