________________ 150 मृत्यु की दस्तक है, पर कभी-कभी जल जाने, किसी चीज़ से उलझकर फट जाने, या अन्य कई कारणों से वह थोड़े ही दिनों में बदल देना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार शरीर साधारणतः वृद्धावस्था में जीर्ण-शीर्ण होने पर नष्ट होता है परन्तु यदि बीच में ही कोई आकस्मिक घटना या कारण उपस्थित हो जाये तो अल्पायु में ही शरीर त्यागना पड़ता है। बाल, युवा और वृद्धावस्था, ये शरीर की तीन अवस्थायें होती हैं। यदि मनुष्य अपनी इन सभी अवस्थाओं (बाल, युवा और वृद्ध) पर और जीवन की क्षणभंगुरता पर विवेक से विचार करें तो शोक-पीड़ित और आश्चर्यचकित नहीं होंगे। शरीर परिवर्तनशील होने से चिरस्थायी नहीं है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया के कारण शरीर प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण यह वृद्धि और वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। शरीर और मन में परिवर्तन होने पर भी आत्मा नित्य अव्यय रहती है। इसलिये शरीर सर्वदा ही परिवर्तनशील है और आत्मा सनातन। “निर्विशेष” और “सविशेष” आदि सभी तत्त्वदर्शियों ने इस सिद्धान्त को माना है। वास्तव में जन्म-मृत्यु हमारे जीवन के अनिवार्य अंग ही नहीं बल्कि हमारा सहज स्वभाव भी है। मृत्यु तो कुछ भी नहीं है। जिन विषयों से सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, आदि संस्कार उत्पन्न होते हैं वे सब स्पर्श अनित्य हैं, आते-जाते रहते हैं, उससे अविचलित रहकर हमें उन सबको ग्रहण करने का प्रयत्न करना चाहिये। जो व्यक्ति अपने को अब इन सबों से पृथक्, छिटका हुआ अनुभव करता है, उसे अपने अलगाव की स्थिति के समान होने का भी भय सताता है और इसी को "मृत्यु-भय” कह सकते हैं। मृत्यु की भावना या भय से मुक्त होने हेतु गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का कहना है कि - हमें उस महान् पुरुष को जानना होगा जो अन्धकार से सर्वथा परे है, परम ज्योतिर्मय है, नित्य है और शाश्वत् है। वस्तुतः इसके अतिरिक्त कोई दूसरी राह नहीं है। मृत्यु के भय से अविचलित रहने वाले कबीर दास जी ने स्पष्ट रूप में कहा था कि - जे ही डर को सब लोग डरे हैं, सो डर हमरे नाहिं। जबकि यह परम सत्य है कि जीव का अपना कुछ भी नहीं है, किन्तु वह अविवेकवश अपने स्वजनों से, परिचितों से, शरीर से, प्राणी एवं पदार्थों से मोह कर लेता है। इसलिये वह इन सबको छोड़ने से कतराता है और दुःखी हो जाता है। और यही मृत्यु से डरने का मुख्य कारण है। यदि वह इस दृश्यमान संसार का मोह छोड़ दे तो उसे मृत्यु-भय बिल्कुल न रहे। “जो प्रतीत संसार से अपने आपको अपने आप में लौटा लेता है, उसके लिये जीना और मरना बराबर हो जाता है। परन्तु मानव मृत्यु से भयभीत होकर उसका नाम तक लेना नहीं चाहता। यहाँ तक कि विवाह, जन्मोत्सव, आदि मांगलिक कार्यों में तो कोई मृत्यु शब्द का उच्चारण तक नहीं कर सकता। ऐसे मांगलिक कार्य में अमंगल के शब्द! आश्चर्य की