________________ मृत्यु - आध्यात्मिक दृष्टिकोण 151 बात है कि जो मृत्यु निरन्तर दबे पाँव मनुष्य की ओर अग्रसर हो रही है, उससे वह आँखें छिपाना चाहते हैं। और अपनी वास्तविकता को स्वीकारने से कतराते हैं। हम तो मौत को भुलाकर मौत से बचना चाहते हैं और इस प्रकार अज्ञान और अविवेकी मनुष्य सर्वदा अपने आपको छलता है, धोखा देता है। यह सत्य है कि देह स्वभाव से नाशवान है। उसका विनाश तत्काल हो अथवा सौ वर्ष बाद, इसमें केवल समय का ही प्रश्न है। उसे अनिश्चित काल तक बनाये रखने की कोई भी संभावना नहीं, प्राकृत देह से आत्मा के जाते ही देह का विघटन होने ही लगता है। इसलिये प्रत्यक्ष रूप से देह का अस्तित्व आत्मा से ही है, उसका अपना कुछ भी महत्त्व नहीं है। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि मानव-जीवन में सबसे बड़ा आश्चर्य का विषय क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि असंख्य प्राणी नित्य मरते हैं, इसको देखते हुए भी दूसरे मनुष्य ऐसा काम करते हैं जैसेकि वे कभी नहीं मरेंगे, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जिन सांसारिक कार्यों को हम जीवन भर कर चुके हैं, देख चुके हैं और अनुभव कर चुके हैं फिर भी उसी को देखने और करने के लिये बहुत दिनों तक हम जीना चाहते हैं? प्रिय से मिलना-बिछुड़ना, अप्रिय का संयोग, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान, विपत्ति-सम्पत्ति, रोग-निरोग, लड़ाई-झगड़े, राग-द्वेष, इत्यादि। जबकि उसमें कुछ “सार" या "सत्य” नज़र नहीं आता फिर भी उसमें इतना आकर्षण क्यों? इतना लगाव क्यों? संसार की क्रियाओं की “निस्सारता” को देख-लेना और जान-लेना ही ज्ञान की परिपक्वता है। अगर हम राम, कृष्ण, सिकन्दर, अशोक, आदि के शासन, ऐश्वर्य आदि को ध्यान में लें, तो अब उनकी वंश-परम्परा का कोई पता नहीं रह गया। सभी “काल" के आगोश में समा गये। काल की आग में ही सारे प्राणी और पदार्थ पकते हैं, क्षीण होते हैं और भस्म होकर समाप्त हो जाते हैं। इस निरन्तर प्रज्वलित कालाग्नि को जो सदैव देखता है, उसे ही संसार में कोई आकर्षण नहीं रह जाता। वह तो केवल परोपकार का ही काम करता है। इस संदर्भ के सारांश में यही कह सकते हैं कि मनुष्य जीवन भर केवल अपनी व्यवस्था में ही लगा रहता है। उसे विश्राम करने का समय ही नहीं मिलता। हे मन! इस संसार में कब तक दौड़ोगे? और दौड़ते-दौड़ते कब थकोगे? मृगतृष्णा से तपती धूप में कहीं पानी है? दौड़ने का फल क्या शान्ति है? आखिर बिस्तर बिछाते हुए जीवन बीत जाता है, आदमी विश्राम करने का अवसर ही नहीं पाता और वह यहाँ से चल देता है। संसार से थको और रुको तभी सच्ची शान्ति पायेंगे। ईशू मसीह ने कहा है - आओ हम तुम्हें विश्राम दें। अगर जीवन की प्रत्येक घटना एवं उपलब्धि पर नजर डालें और उसकी समीक्षा करें तो अन्त में कुछ भी “सार" हाथ नहीं लगेगा। इसलिए, बाहर की घटनाओं एवं उपलब्धियों में हम न रमें बल्कि अपने आप में ही रमना सीखें। सब साधनाओं का "सार" है वैराग्य और