________________ मृत्यु - आध्यात्मिक दृष्टिकोण 149 मृत्यु-भय क्यों? मृत्यु का भय अन्य किसी भी भय से अधिक बलवान है। मृत्यु के डर से मनुष्य काँप जाता है। योगवाशिष्ठ के अनुसार “कीट और इन्द्र की जीने की आकांक्षा तो समान है ही, उनमें मृत्यु का भय भी समान है।" "जो आया है, सो जायेगा, राजा रंक फकीर” या “एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल" जैसी बातों को सुनकर, पढ़कर और याद करके भी मृत्यु से हम भयभीत हो उठते हैं। मनुष्य, किस दिन मरेगा, इसकी चिंता एवं भय तो करता है, परन्तु जो हर क्षण मर रहा है उसकी चिन्ता नहीं, अनुभूति नहीं। क्योंकि मनुष्य जीना चाहता है, मरना नहीं, परन्तु जीवन अनिश्चित् है और मरना निश्चित् / रोग से पीड़ित, खाट में पड़ा हुआ व्यक्ति भी मरना नहीं चाहता। जीवन के प्रति इतना मोह क्यों? क्या मृत्यु भयानक है? या भयदायक है? नहीं। न तो मृत्यु भयानक है और न ही भयदायक। मृत्यु तो शान्ति और आरामदायक है। भयदायक हैं हमारी वासनायें। असल में, जब तक हमारी वासनाएँ शान्त नहीं होती, तब तक हम इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि मृत्यु स्वाभाविक और शान्तिदायक है। जिनकी वासनाएँ निवृत्त हैं “वे जन सदा अनन्दा / उन्हें मृत्यु का भय कभी नहीं होता क्योंकि उनकी मृत्यु-भय की वासना भी निवृत्त रहती है। वासनाएँ ही मृत्यु का भय उत्पन्न करती हैं। जिनकी वासनाएँ छूट गयी हैं, उन्हें मृत्यु का भय कैसा? वासनाओं से छूट जाने पर जिस प्रकार मन के उपद्रव मिट जाते हैं, वैसे ही मृत्यु होने पर शरीर के उपद्रव भी मिट जाते हैं। शान्ति ही सुख है। वासना निवृत्ति और मृत्यु से शान्ति ही नहीं महाशान्ति मिलती है। अतः जो निश्चित् है, जो अवश्यंभावी है, उसके लिये चिन्ता क्यों? जीवन का प्रवाह तो अनन्त है और अमर है। उसकी मृत्यु का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। शरीर की मृत्यु या नष्ट होने को हम अपनी मृत्यु मानते हैं, बस इसीलिए डरते हैं और भयभीत होते हैं। यदि अपने अन्तःकरण को यह विश्वास हो जाये कि आज की तरह हमें आगे भी जीवित रहना है तो डरने की कोई बात ही नहीं रह जाती। बस, भ्रमवश मनुष्य यह समझ बैठा है कि जिस दिन शिशु माता के गर्भ में आता है या गर्भ से उत्पन्न होता है, उसी समय से जीवन आरम्भ होता है, और हृदयगति बन्द हो जाने पर शरीर निर्जीव हो जाता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता है। परन्तु यह एक बहुत ही अधूरा एवं अज्ञानमूलक विश्वास है। जिनको यह ज्ञान है कि “आत्मा अमर है, नित्य है, शरीर के न रहने पर भी वह रहती है, उनको ही केवल मृत्यु की चिन्ता नहीं रहती है क्योंकि वह जानता है कि हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा हैं, फिर मरने का कैसा भय! गम्भीर विश्लेषण से ज्ञात होता है कि जीवन और शरीर एक वस्तु नहीं है। उदाहरण के लिये - जिस प्रकार हम कपड़ों को यथासमय बदलते रहते हैं, उसी प्रकार जीव को भी शरीर बदलने पड़ते हैं। स्वभावतः कपड़ा पुराना जीर्ण-शीर्ण होने पर ही अलग किया जाता