________________ 146 मृत्यु की दस्तक अनुभवों को लेकर आया करते हैं। इसको माने बिना गति नहीं। क्या यह विश्वास सच है कि मृत्यु के बाद का अस्तित्व उतना ही सच है जितना जीवित काल का अस्तित्व? आखिर जन्म और मृत्यु का सम्बन्ध किससे होता है? क्या भौतिक शरीर से? अस्तित्व तो अनादि और अनन्त है, शाश्वत् है। अतः उसके प्रारम्भ और अंत को सोचना ही मूर्खतापूर्ण कार्य है। ___ आज के भ्रूण वैज्ञानिक प्रजनन की अनेकानेक विधियों को नकारकर स्त्री-पुरुष की महत्ता को भी अस्वीकार करते जा रहे हैं। लैंगिक सृष्टि में प्रकृति युग्मनज बनते ही साँचा को सदा-सदा के लिए तोड़ फेंकती है अतः हर व्यक्ति अपने प्रकार का अलग, अकेला, अनोखा और अद्वितीय होता है, जैसा और कोई न कभी हुआ, न है और न कभी होगा। पेड़ की दो पत्तियाँ भी तो एक सी नहीं होती। पर इन्सान भी अजीब जीव है जो अपनी सृष्टि में न जाने कितने ही हमशक्ल बना सकता है। परेशान हैं दार्शनिक, धर्मशास्त्री, आचारशास्त्री और समाजशास्त्री इस वैज्ञानिक इंसान की करामात को देखकर / सृष्टिकर्ता भी नहीं कर पाते इस कार्य को। यह विधि है हमशक्ल बनाने की कला। इसे "क्लोनिंग” कहते हैं। किसी भी जीव की एक कोशिका को लेकर ठीक-ठाक उसी प्रकार का और शक्ल का जीव तैयार किया जा सकता है। पौधों, पतंगों और छोटे जीवों में तो पहले ही से ऐसा किया जाता रहा है। भेड़, बन्दर, चूहे, आदि पर तो सफल प्रयोग हो ही चुके हैं, मानव “क्लोन” भी बन चुका है। अब मरने से क्यों डरा जाये? दूध अधिक देने वाली गाएँ तैयार करके “क्लोनिंग” द्वारा अनेक देशों में डेयरी उद्योग चलाना प्रारम्भ हो चुका है। प्रश्न है कि "क्लोनिंग” द्वारा बना बच्चा किस माता-पिता का माना जाये? अब स्त्री-पुरुष की आवश्यकता ही क्यों? चिकित्सकीय क्षेत्रों में विशेष उपलब्धियाँ तो बड़े काम की अवश्य होंगी, पर, मानवीय संवेगों, क्षोभों, अनुभूतियों, आदि का क्या होगा? दो या अनेक हमशक्लों के हो जाने पर कितनी और कितने प्रकार की समस्याएँ पैदा होंगी? इसका भी अनुमान ये वैज्ञानिक कर पाते हैं? भारत में जन्मदिन पर खुशी मनायी जाती है, पर मृत्यु-दिवस की पुण्यतिथि पर खुशी मनाने की परम्परा कभी नहीं रही है। हाँ, अतिवृद्ध या वृद्धा की मृत्यु पर, संत-महात्मा की मृत्यु पर बाजे-गाजे के साथ नाचते-कूदते और सजी-सजायी अर्थी ज़रूर निकाली जाती है। हमारी संस्कृति में तो जीवन की ही पूजा की प्रथा रही है। देवी-देवता, दुर्गा, सरस्वती, देवेन्द्र, शिव, विष्णु, आदि को ढलती उम्र का कभी दिखाया ही नहीं जाता। देवतागण बालरूप के या युवक रूप के ही दिखाये जाते हैं। भारतीय नाट्य-शास्त्र में हत्या या मृतक का दृश्य भी नहीं दिखाया जाता। भारतीय संस्कृति तो शुद्ध जीवनमुखी मानी जाती है। फिर आधुनिकता, नवीनता और सुधारवादिता को शाश्वत् क्यों मानें? पुण्यतिथि पर प्रसन्नताप्रदर्शन संभवतः अंग्रेज़ी सभ्यता की देन है। हाँ, एक और बिरादरी है जो सम्बन्धियों, रिश्तेदारों या साथियों की मृत्यु पर नाचते-गाते और प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। सगा-सम्बन्धी