________________ मृत्यु - सच्ची या झूठी? 145 आधारित पुनर्जन्म का सिद्धान्त मान्य न होता तो इस लोक को अनियंत्रित, अनर्थक, अनर्गल और निष्प्रयोजन माना जाता और समझा जाता कि यहाँ अन्यायपूर्वक और मनमाने ढंग के लोगों को दण्ड-पुरस्कार प्राप्त हुआ करते हैं। जो लोग शाश्वत् जीवात्मा को मानते हैं वे भी उसे जीव के कर्म और उसके सतत् प्रवाह रूप को ही तो नित्य मानते रहे हैं। कर्ता और कर्म का नित्य सम्बन्ध तो मानना ही होगा, पूर्वजन्म व परजन्म मानकर ही हमें जन्मान्तर-वाद का अस्तित्व सिद्ध करना होगा। बस याद यही रखना होगा कि सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, स्वभाव, यश, धन, आदि किसी व्यक्ति को इसी जीवन में नहीं मिला करता है, वह तो केवल माता-पिता से प्राप्त संतान को ही मिला करता है। पूर्व जन्म में किये गये कर्मों और माता-पिता द्वारा किये कर्मों के कारण ही उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार के.शरीर मिला करते हैं। ___ कहा जाता है और माना भी जाता है, योगसूत्र और व्यासभाष्य से भी यही सिद्ध होता है कि जीवमात्र को मृत्यु-भय दिखायी देता रहता है। ज्ञात होता है कि ये अनेक बार के हुये ऐसे ही अनुभवों के कारण ही यह स्वाभाविक भय होता है। मृत्यु-स्मरण बिना मृत्युभय सताता कैसे? अतः प्राणीमात्र को मृत्यु-भय का सताना ही पुनर्जन्म का अनुमान कराता है। बालक के जन्म लेते ही हर्ष, भय, आदि की जो अनुभूतियाँ दिखती हैं उसका कारण पूर्वजन्मों के अनुभव ही तो हैं। सोते-सोते हँसना, रोना, डरना इस जन्म का अनुभव अभी कहाँ होता है? वह तो पूर्व जन्म की अनुभूतियों को ही स्मृतिस्वरूप में कारण रूप मानना ही होगा। पूर्वजन्म के अनुभवों का स्मरण कैसे रहता है? लगता है पूर्वजन्म की सिद्धि अनुमान मात्र ही से नहीं है। आधुनिक विज्ञान भी इसे जानता-मानता है कि जीवन तो अनन्त __ मुसलमान और ईसाई न्याय दिवस को कर्मफल पाया करते हैं। आदम, हव्वा और शैतान की कहानी को दोनों ही सही मानते हैं। बिना अपराध के क्या शैतान को खुदा ने अपराधी नहीं बनाया? तीनों को शाप क्यों मिला? शैतान ने तो आदम, हव्वा को बहकाया भी नहीं था। लगता है कि खुदा के ऊपर कोई न्यायकर्ता नहीं। उसे किसी से डर नहीं? न्यायवादियों का तर्क आज भी मान्य है। वही निश्चयात्मक प्रतीत होता है। न्यायमत का विश्वास है कि हमारे अनुभव लुप्त या नष्ट नहीं हो सकते। हमारी कृतियाँ यद्यपि देखने में लुप्त सी दिखा करती हैं पर वे अदृष्ट बनी रहती हैं। और अपने परिणाम से "प्रवृत्ति का रूप धारण करके पुनः अवसर पाकर प्रकट हो जाया करती हैं। प्रवृत्ति और कुछ नहीं, पुराने जन्मों की कृतियों के संस्कार हैं, जान-बूझकर किए प्रयत्नों के मूल में वह बनी रहती है। - भारत के पूर्वजन्मवादी और आधुनिक विकासवादी एक मत के हैं। माता-पिता से आने वाली संतान आनुवांशिक संक्रमण द्वारा ही यह संभव है। शून्य से उत्पत्ति का सिद्धान्त एकदम मान्य नहीं है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसीलिए इतना महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने साथ जन्म से पूर्वकालिक