SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मृत्यु - सच्ची या झूठी? 139 कष्ट संज्ञाशून्यता की ज़रूरी दवा के बिना तो होगा ही। प्रकृति कदाचित् इसी मंशा से यह करती है कि मनुष्य आराम से जन्मे भी और मरे भी। मरते वक्त जीवन भर के सुख-दुःख, पद-धन, मान-प्रतिष्ठा, अहंवाद और अहंकृति दिखने लगती है। बेहोशी में कष्ट तो ज्ञात ही नहीं हो पाता। हम पैदा भी होते हैं आराम से और मरते भी हैं आराम से / कहते हैं, जागृत् जन्म और जागृत् मृत्यु तो केवल जीवनमुक्त के लिए ही संभव है। . सृष्टिकर्ता ने जीवन को अत्यंत बहुमूल्य, जटिल और दिव्य बनाया है, पर, सरल और सहज नहीं। उसके लिए कठोर परिश्रम और प्रयोजनपूर्ण पुरुषार्थ चाहिए। जीवन दुस्साध्य कठिनाइयों और अटकलों तथा अवरोधकों को पार करके जीवनधारा के बहाव को सदा, सतत्, अजस्र और अविच्छिन्न रखने का प्रयास करता रहता है। यों तो मृत्यु अत्यंत डरावनी होती है पर ऐसे लोग भी हैं जो अनेक बार सामाजिक विकृतियों, व्यक्ति की परिस्थितियों और मनःस्थितियों तथा गहरी जटिलताओं में भी खुशी-खुशी जीवन का मोह त्यागकर प्राण त्यागने का जश्न और उत्सव मनाया करते हैं, कारण चाहे जितने भी मनःप्रणीत या मनःपूत क्यों न हों। ये लोग वास्तव में तो मनःसंताप और मनःसंकल्प के विवश शिकार होते हैं। उन्हें न तो मोह से डर लगता है न जीवन से। अति विकसित बीसवीं सदी में भी विश्व में आत्महत्या मानव विकास के प्रमाण से भी संबद्ध है। विद्वान् और ज्ञानी लोग भी इस कार्य को सहर्ष ढंग से करते रहे हैं। जर्मन विद्वान् गेरे ने अनेकानेक बार आत्महत्या का प्रयास किया, तैयारी भी की, पर इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि कर सके। दार्शनिक डोयोजनीज जैसे विद्वान ने स्वयं “फाँसी लगा ली"। मृच्छकटिक के लेखक शूद्रक ने आग में जलकर जान दे दी। लैटिन कवि एम्मेदोक्लीज ने तो ज्वालामुखी के मुँह में छलाँग लगाकर खुदकुशी की। चैटरटन ने विषपान करके मृत्यु को गले लगाया। गोर्की ने अपनी ही पिस्तौल से अपने को मार डाला। चित्रकार "लाडो" ने भी अपने को अपनी ही गोली से मार डाला। रॉबर्ट क्लाइव ने अपने को तीन बार मारने का प्रयास किया पर तीनों बार निशाना चूक गया। ऐसे अनेक लोग हैं और हुए हैं जिनको जीवन एकदम प्यारा नहीं, बल्कि मौत प्यारी होती है। ये दौरे आवेश के होते हैं और विवेक अस्त-व्यस्त सा हो जाता है। लोग स्वेच्छा वरण से भी मृत्यु को स्वीकार किया करते हैं - अनशन, उपवास और अनवहित होकर आहार एवं जल त्याग कर | साधु-संत तो स्वेच्छा-मरण को स्वाभाविक मृत्यु से अधिक उत्तम मानते हैं। अनेक लोग तो जीवित समाधि ले लिया करते हैं। जैनों में तो सामान्य प्रथा है कि अन्त में अनशन द्वारा अन्न-जल त्यागकर प्राण दिया करते हैं। हाँ, सभी धर्मावलंबी अपने-अपने धर्मग्रन्थों से, पाटंबर ओढ़कर धार्मिक या देवपरक ग्रन्थपाठ उन्हें चौबीस घंटे सुनाते रहते हैं। पाठच्छेद और विराम तो होता ही नहीं। हाँ, पाठक लोग समय से बदलते रहते हैं। पांडवों का स्वर्गारोहण, ज्ञानेश्वर की जीवित समाधि, स्वामी रामतीर्थ
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy