________________ 138 . मृत्यु की दस्तक जान समझ गए और उसे गले लगाने की तैयारी कर चुके तब तो मौत भागती फिरेगी और जहाँ इस तैयारी से चूके, वह तुरंत धर दबोचेगी। साँस का आना-जाना ही तो जीते रहने का प्रमाण है। मरना तो है हृदयगति बन्द होने के कारण साँस का रुक जाना। हृदयगति या साँस के रुक जाने का भय ही तो मरने का भय पैदा करता है। इस भय के भी कारण हैं मोहपाश, अज्ञान में की गयी अज्ञता, अपनी जिजीविषा और अपनों को भी बनाते और जिलाते रहने की तीव्र आकांक्षा और चाहना। मोह का मतलब ही है भयभीत रहना, मोह सफल तो दुःख, असफल तो और भी दुःख। सारी महत्त्वाकांक्षा की तीव्र पर अतृप्त तृष्णा, प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता की होड़, प्रतिस्पर्धा और लागडॉट की दौड़ा-दौड़ी, मंदिरमस्जिद देवी-देवता तथा भगवान हैं, केवल और केवल मृत्यु के प्रतिकार के लिए। हाँ, अपनी इच्छा से मरने की तैयारी भी जीवन को सार्थक और साभिप्राय बनाने की एक अत्यंत उपयोगी विधि है। ___ मौत का आना-जाना ही तो जीवन है। जो इस सूत्र में पूरा-पूरा विश्वास करता है वही परम सुखी रहता है। जो यह मानता है कि मेरा शरीर अलग है और मैं अलग हूँ तो उससे मौत स्वयं डर जाती है। पता नहीं यह लोग शब्दों का खेल मानते हैं या केवल धार्मिकों, आध्यात्मिकों, शास्त्रज्ञों, सांस्कृतिक परम्पराओं और रटे-रटाये वाक्यों में विश्वास के कारण ऐसा होता है। विश्व का बहुत बड़ा प्रमाण पुष्ट और प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक जगत्, जीवननिष्ठ संगठित समूह, निर्भय, विश्वास वंचक और विश्वास जिज्ञासु ज्ञानार्थी जनसमुदाय इसे जानता भी नहीं, मानता भी नहीं। पर, जानता कौन नहीं कि मरण जीवन का अकेला सच है। वह तो अपने शरीर से भी अधिक निकट लगता है। जीवन का रूप चाहे जैसा भी दिखे, जो भी समझ में आये, केवल मृत्युभय के कारण ही है। पर न जाने क्यों बड़े जानदार और जानकार, जांबाज और जानजाँ भी जाने-अनजाने यही बताते फिरते हैं कि मृत्यु से बड़ा झूठ कोई होता ही नहीं। समस्या यह उठ जाती है कि यदि मृत्यु को सच मान लें तो जीवन ही झूठा हो जाता है। जीवन सच है और लोग मृत्यु को भी अपनी आँखों से देखते रहते हैं, अतः जीवन के बारे में तो हम स्वयं बता पाते हैं, परन्तु मौत के बारे में कैसे बताएँ, हम मरे तो हैं नहीं, और अपने मुर्दे से पूछे कैसे? ___ आत्मा की अमरता चिल्ला-चिल्लाकर कहती है कि मैं मर तो सकती ही नहीं - मृत्यु है ही कहाँ? पर, अभिज्ञों का मानना है कि हम इतने डराकू और डराहुक लोग हैं कि आत्मा का अमरत्व सही मानकर जीते रहने का झूठा भ्रम पाले बैठे हैं। अकेले में तो डरते ही रहते हैं, मरते समय तो हम बेहोश ही हो जाते हैं। मरे तो न जाने कितनी बार पर हर बार बेहोश होकर। संभवतः प्रकृति मरते वक्त संज्ञाशून्यता की दवा देकर व्यक्ति को कष्ट से बचाने के लिए उसे संज्ञाशून्य कर दिया करती है। क्या और कैसी विडंबना है कि पैदा होते हैं तब भी और मरते हैं तब भी बेहोश हो जाया करते हैं। शायद, अनुभव की याद के अभाव में ही दूसरों को पैदा होते और मरते देखा करते हैं। पैदा होने और मरने में ऑपरेशन का