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________________ मृत्यु - सच्ची या झूठी? 137 गया, कहाँ से आ गया और कब से आता रहा है, उसे नहीं मालूम / धीरे-धीरे उसे यह भी मालूम हो जाता है कि वह रहे या नहीं दुनिया तो यों ही रहेगी। न जाने उसने अपने से, अपनों से जानना चाहा कि आखिर हमारा जीवन है क्या? पूछने की सोच ही रहा था कि अध्यात्म, धर्म, दर्शन, शास्त्र, गुरु, पंडित, विज्ञान, आदि दौड़ पड़े उत्तर देने को। उन्होंने बस इतना भर समझा कि जीवन के दो सिरे हैं जन्म और मृत्यु, पर कोई नहीं बता पाया कि जन्म के पहले क्या और मृत्यु के बाद कहाँ / विद्वान् विज्ञों और अतिशय अभिज्ञों का जाननामानना है कि हम जानें या नहीं, समझें या नहीं, हमारा जीवन केवल उतना ही नहीं जितना जन्म और मृत्यु के बीच का चैतन्य, जीवंत और जीवित दशा है। वह तो जीवधारी की असीम, अनन्त और अपरिमित यात्रा है। जीव की अनेकानेक जन्म, मृत्यु और जीवन-लीलाएँ होती रहती हैं। बीच-बीच के जीवनचरित तो मार्ग के अस्थायी और अल्पकालिक पथिकाश्रय और ठिकाने-पड़ाव हैं। जन्म होने पर लोग खुशी और आनन्द मनाते हैं और मृत्यु के बाद दुःख मनाया जाता है। खुशी तो छोटी, पर दुःख तो बड़ा भारी होता है। कारण यह है कि लोग जीवन जीने में इतने व्यस्त रहते हैं कि जीवन की वास्तविकता का मूल्य आँक नहीं पाते, पर जब मरने लगते हैं तो जीवन का महत्त्व, उपयोग और लाभ समझ में आने लगता है। जब तक ज़िन्दगी का महत्त्व समझ में आने लगता है तब तक मौत सामने खड़ी दिखने लगती है। सच तो यह है कि जन्म के बाद का हर जन्मदिवस मृत्युदिवस को बताने वाला मील-पत्थर का चिह्न होता है। उम्र का बढ़ना अर्थात् आयु का घटना। मृत्यु की छाँव तले ही तो जीवन को विराम, विश्राम और आराम मिलता है। मानव सभ्यता और संस्कृति टिकी है केवल मृत्यु के भय पर। जीवन भर मरते रहने के अतिरिक्त हम करते क्या हैं? घर-परिवार, समाज-राष्ट्र, मंदिरमस्जिद, गुरुद्वारा-गिरजाघर बने हैं और ठहरे हैं केवल मृत्यु के भय से भयातुर और भयाक्रांत होकर। शरीर तो रहता किसी का नहीं। यों, मरने का मतलब मिटना नहीं केवल रूप का बदलना है। यह परिवर्तन सजीव-निर्जीव दोनों में होता है। हम तो मर-मरकर रूप बदलते ही रहते हैं। खनिज से बदलकर वनस्पति, फिर पशु और ऐसे ही बदलते-बदलते आज मनुष्य के रूप में दिखायी दे रहे हैं। पर हमारी सूरत ही बदली, वृत्तियाँ तो पशु की ही हैं। जन्म और मृत्यु परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे तो जीवन के दो छोर, दो पाँव और दो पाट जैसे हैं। इस परम शाश्वत् और अनन्त जीवन में इनका महत्त्व ही क्या है और कहाँ है? महत्त्व तो दूर रहा अस्तित्व भी तो नहीं। जन्म तो हो जाता है पर जीना सीखना पड़ता है क्योंकि मनुष्य जैसे सर्वोच्च उद्विकसित जीव का जन्मजात शिशु इतना निकृष्ट, निकम्मा और निस्सहाय है कि उसे कुछ भी नहीं आता-जाता, उसे सब कुछ सीख कर ही जाननासमझना पड़ता है। सीखते जाना ही जीवन कहलाता है। बीच में उसे मरने की फुर्सत भी तो नहीं। कितनी बड़ी भूल होती है हमसे, हम सब कुछ सीखना चाहते हैं पर मरना नहीं। इसीलिए तो उसे जीवन ही खोजता फिरता है बड़े प्यार के साथ। यदि मृत्यु को अच्छी तरह
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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