________________ मृत्यु की अवधारणा - प्राचीन शास्त्र और आधुनिक ज्ञान 135 तो दो-चार भी बना सकता है)। अर्थात् बीच में कहीं मरण का प्रश्न नहीं आया। जीवन से ही जीवन का उद्भव हुआ। “जीवनद्रव” (प्रोटोप्लाज्म) एक नदी है। वह सदा प्रवाहित रहती है - उसमें बुलबुले उठते रहते हैं और लुप्त हो जाते हैं। यह नदी तभी सूखेगी जब प्रजाति नष्ट हो जाये। इस चिरंतन जीवन की संकल्पना भारत के ऋषियों ने की थी। गया श्राद्ध की विधि से कर्मकाण्ड की बात छोड़ दें तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात आती है कि पुत्र विष्णुपदी के समक्ष साक्षी देता है कि मेरे पिता ने धारा तोड़ने का पाप नहीं किया, साक्षी रूप में उपस्थित हूँ। प्रजनन ही अमरत्व है। हमने जीवित कोश की चर्चा की। कोश की रचना में जायें तो अद्भुत तथ्य सामने आते हैं। कोश निरंतर निर्माण क्रिया में लगा रहता है, वह नये कोश की रचना भी करता है। कोश के अंदर एक केन्द्र होता है जो उससे भी अधिक विस्मयजनक है। इस केन्द्र में गुणसूत्र होते हैं और गुणसूत्र पर सैकड़ों गुणाणु। प्रत्येक गुणाणु प्राणी के किसी भी गुणदोष का नियामक है। और ये गुणाणु हैं क्या? अणुओं के पुंज जो “अणोरणीयान” की कल्पना साकार करते हैं। जगत् में अणुपुंज तो बहुत हैं पर वे अपना प्रतिरूप नहीं बना सकते। किंतु एक ऐसी परिस्थिति भी आती है जब कुछ परमाणु जुड़ने पर, उनमें जैवगुण आ जाता है, वे जीवित हो उठते हैं। निर्जीव और जीवित की कुंजी यहीं कहीं है। मृत्यु होने पर ये असंख्य परमाणु (जो कोश में हैं) बिखर जाते हैं, किसी अन्य कोश में या निर्जीव अणुपुंज में जुड़ जाते हैं। आप भले मार्ने कोश मर गया, प्राणी मर गया पर केवल स्थानांतर होता है। . और गहरे उतरें। ये अणु-परमाणु हैं क्या? एक शक्तिपुंज केन्द्र के चारों ओर विद्युताणु चक्कर काटते हैं। समस्त तत्त्वों में मात्र एक अंतर है। इन शक्ति बिंदुओं की संख्या। ये हैं क्या? पदार्थ या स्पंदन (शक्ति का) कोई नहीं जानता। फिर इस सूक्ष्म सौर मंडल में अपार अवकाश है। यदि ये शक्ति बिंदु हैं तो इनके एकत्र होने पर वही स्थिति होगी जो ब्रह्माण्ड के समस्त सौर पिण्डों के एकत्र होने पर / वे इतने छोटे हो जायेंगे मानो अपार तम भरे जंगल के कोने में एक दीया जल रहा हो। समस्त अणु-परमाणु को तोड़ दें तो यह पृथ्वी एक गेंद बराबर भी नहीं होगी। यह कल्पना ऋषियों ने भी की और आधुनिक विज्ञान भी करता है। यह परमाणु जगत् (पिण्ड में भी और ब्रह्माण्ड में भी) महाशक्ति महामाया का खेल मात्र है - एक छलना है। जीवन-मरण तो उसी खेल के दो पहलू हैं - उद्भव और प्रलय, पुरातन और नूतन न हों तो खेल कैसा? उसी ने अमृत बनाया है उसी ने विष भी। अंत में काल तथा अमर देवता भी मरण प्राप्त करते हैं और बालमुकुंद अपना खेल समेटकर मुस्कराते हैं। जीवन-मरण का खेल समझने में पुरातन और नूतन का नहीं चश्मे का फ़र्क है। आइये कबीर के शब्दों में ललकारें "हम न मरै मरि है संसारा" और नाटक में अपनी भूमिका निभाने के बाद महानिद्रा में खो जायें।